शुक्रवार, 12 जून 2009

कवि की कल्पना... पार्ट-2 (मोहब्बत की मेट्रो)

(मोहब्बत की मेट्रो...ये नाम दिया बंधु जिंदल साहब ने। दरअसल कुछ महीने पहले मैं रुटीन के मुताबिक ऑफिस रहा था, डीयू से मेट्रो पकड़ी। कश्मीरी गेट पहुंचा तो भीड़ का रेला ट्रेन को धकियाते भीतर घुसा। इस रेले में अपने जिंदल साहब भी थे, डिब्बे में उनकी नज़र एक जोड़े पर पड़ी, फिर मुझ पर... जिंदल साहब के अंदर छुपा कवि जागा औऱ उन्होंने गढ़ दिया एक नाम ; नए-नए कैचवर्ड-स्टिंग बनाना/सुझाना इनकी दिनचर्या में शुमार है ;नाम दिया...मोहब्बत की मेट्रो)

...देहात की मेट्रो के सफर के बाद मैं जैसे भौचक्का रह गया था... इतना सब देखने की ना तो कभी कल्पना की थी... और ना ही कामना। घर से मात्र डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर मेट्रो स्टेशन होने के बावजूद अब मैं बसों से ज़्यादा सफर करने लगा। सड़कों पर ट्रैफिक बेतहाशा बढ़ चला था...डीयू से सीपी पहुंचने के लिए दो घंटे से भी ज़्यादा वक्त लगने लगा था। लेकिन बहुत दिनों तक ऐसा नहीं चल पाया। एक दिन हिम्मत कर मैने फिर से मेट्रो से जाने का फैसला किया।

घर से अक्सर मैं पैदल ही मेट्रो स्टेशन तक चला जाया करता था... स्टेशन तक का सफर तो वही जाना पहचाना सा ही था... हां जब स्टेशन पहुंचा तो माहौल जरुर बदला-बदला नज़र आया।

इमारत की सीढ़ियों के अलावा जहां-जहां भी बैठने लायक जगह थी, प्रेमी जोड़े पूरे साज-श्रृंगार के साथ बैठे हुए थे। अब आप कहेंगे कि इसमें नया क्या है...बैठते तो पहले भी थे...बैठते रहे हैं और बैठते रहेंगे। लेकिन मैने जो देखा वो आपको बताता हूं। बैठने लायक सभी जगहों पर बड़े-बड़े अक्षरों में साफ-साफ लिखा था कि ये जगह प्रेमी जोड़ों के लिए आरक्षित है। मुझे जानने की उत्सुकता हुई कि आखिर ये माजरा क्या है...लेकिन आसपास नज़र दौड़ाने पर कोई भी सिंगल आदमी मुझे नज़र नहीं आया। थोड़ा साहस जुटा कर मैने एक शांत से दिखने वाले अधेड़ उम्र के अधपके बालों को सहेजे एक प्रेमी जोड़े से आखिर पूछ ही लिया।

मेरा सवाल सुनते ही उनकी आंखों में चमक आ गई। बड़े प्यार से वो बोले...जनाब दुनिया में कुछ भी ऐसे ही नहीं मिलता है। बहुत संघर्ष के बाद हम प्रेमियों ने अपनी मांगें मनवाई हैं। हमने मेट्रो जाम की ...खिड़कियों के शीशे तोड़े... ड्राइवर की पिटाई ...जैसे तमाम हथकंडे अपनाए तब कहीं जाकर हमें प्यार का ये अधिकार मिल पाया है।

कलियुग के प्यार की इस महानता पर नतमस्तक हो मैं आगे बढ़ चला और सीधा प्लेटफॉर्म पर ही जाकर रुका। औऱ वाकई हर जगह मुझे बस प्यार ही प्यार औऱ उस प्यार में डूबे जोड़े ही नजर आए...ना उम्र की सीमा थी औऱ ना जन्म का बंधन... हर एक बेंच प्रेमी जोड़ों के लिए आरक्षित थी... औऱ बैठने की उस बेंच का आज के युग के मल्टीटॉस्कर प्रेमी हरसंभव इस्तेमाल कर रहे थे। पहले जो गार्ड सीटी बजाकर ट्रेन के आने पर लोगों को सावधान किया करता था वो आज भी वही काम कर रहा था, अब वो प्रेमातुर जोड़ों को ट्रेन के आने-जाने की सूचना दिया करता था, घर-दफ़्तर पहुंचने में उनकी मदद करता था ताकि वो समय रहते सुविधानुसार प्यार कर सकें।

इतने में ट्रेन आई और सभी बड़े सलीके से पहले ट्रेन से उतरे फिर उसके बाद लोग उसमें चढ़े। चढ़ते-उतरते वक्त लड़कियों-महिलाओं से कहीं कोई छेड़खानी नहीं, कोई धक्कामुक्की नहीं। हालात वाकई बदल गए थे। ट्रेन के अंदर भी दो लोगों के बैठने की क्षमता वाली कॉर्नर सीट प्रेमियों के लिए आरक्षित थी, हालांकि जगह की कमी के कारण ज़्यादा लोगों को उस पर बैठना पड़ रहा था। मेट्रो का ये वातानुकूलित प्यार अब मुझे रास आने लगा था।

इतने में ही हम जा पहुंचे सीपी । यहां अब एक बड़ा सा लवर्स लाउंज बना दिया गया था, जहां आम और अकेले आदमी के आने की सख्त मनाही थी। साथ ही चस्पां थी एकदम सख्त चेतावनी Trespassers will be prosecuted –

यहां एक और बात पर मैने गौर किया। बैठने की जितनी भी बेंचें थीं...सब पर दो ही सीटें थीं। टोकन डालकर और मेट्रो कार्ड दिखाकर अब दो लोग साथ में स्टेशन एरिया में धुस सकते थे, यानि हाथ में हाथ डाले लव बर्ड्स इकट्ठे इंट्री करते हैं, पहले जैसा नहीं कि कि एक का कार्ड रीड नहीं हुआ तो किसी का टोकन ...और दूसरा उस पार इंतज़ार करता ही रह गया।

वैसे तो कॉलेज आने-जाने का टाइम तो कोई फिक्स होता नहीं है...लेकिन मेट्रो ने भी अपनी यू-स्पेशल सेवा शुरु कर दी थी जो डिपो में ट्रेन के सर्विस पर जाने के टाइम तक भरी रहती थी।

प्लेटफॉर्म पर लगे मॉनीटरों पर अब जनहित में जारी संदेशों की बजाय सुमधुर प्रेम गीत फुल वॉल्यूम पर बज रहे थे। प्रेमी जोड़े ट्रेन का इंतज़ार करते हुए संगीत में खोए हुए थे तो गार्ड तांक-झांक करने वालों को बड़े ही सलीके से समझा रहे थे। वहीं अपना आम औऱ अकेला आदमी जहां कहीं भी था सहमा-सहमा ही नज़र आ रहा था। तभी मैने कुछ प्रेमी जोड़ों को हाथों में पोस्टर बैनर लिए लवर्स लाउंज के बाहर नारेबाज़ी करते देखा। इन लोगों की मांग थी कि चूंकि इनका प्यार मेट्रो में पर्यटन को बढ़ावा देता है लिहाज़ा प्यार करने वालों या फिर कम से कम प्यार करते दिखने वालों के लिए रियायती दरों पर सफर की सुविधा होनी चाहिए। साथ ही मेट्रो को बेस्ट ज़ोड़ा ऑफ द वीक जैसे कॉन्टेस्ट का समय-समय पर आयोजन करना चाहिए...जैसी तमाम मांगों को लेकर ये लोग अब ट्रैक पर जा उतरे थे... इतना सब देखकर अब तक मैं इमोशनल हो चला था...मैने अभी उनका साथ देने का मन बनाकर उस ओर कदम बढ़ाया ही था कि दो-तीन जोड़ी आंखों ने मुझे हिकारत भरी नज़र से देखा... वो लोग मुझे आम और अकेला समझ रहे थे... इतने में मेरे फोन की भी घंटी बजी और मैं भी मुस्कुराता हुआ लवर्स लाउंज में जा पहुंचा ...वहां कोई मेरा भी इंतज़ार कर रहा था...

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