गुरुवार, 9 जुलाई 2009

आज़ादपुर मंडी की बोरियों से एक मुलाक़ात


आज सुबह जब उठा तो लगा कि जैसे पूरे घर को खबर है... आज मेरी छुट्टी है... आदतन दो कप चाय पीने के बाद जब आंखें खुली तो 11 बज चुके थे ...अरे हां ...वाकई मेरी छुट्टी है... माता जी ने जैसे ही देखा कि मैंने उठते ही अखबार ढूंढना शुरु कर दिया है , उन्होंने फौरन आज़ादपुर सब्ज़ी मंडी जाने का फरमान सुना दिया (वैसे एक दिन पहले ही मुझे ये बता दिया गया था कि सुबह-सुबह ही आज़ादपुर मंडी जाना है और आम का अचार डालने के लिए आंम्बी ; कच्चे आम ; लेने जाना है) ।

मैने भी आज़ादपुर ना जाने के सौ बहानों में से क्रमश: एक-एक कर सभी सुनाने शुरु कर दिए...लेकिन ये सभी पुराने हो चुके थे। माता जी पर मेरे किसी भी बहाने का कोई असर ना देख ...मैने भी फिर से आज़ादपुर जाने का मन बना लिया। दरअसल छुट्टी (मेरी) के दिन... इतने ट्रैफिक (गाड़ियों के) से जूझते हुए... वहां पहुंचना जहां का ट्रैफिक (इंसानों का) बर्दाश्त करना शायद अब बर्दाश्त के भी बाहर हो चला है।

यहां बोरियों को लादे इतने इंसान नज़र आते हैं कि खुद इंसान भी बोरी सरीखा लगने लगता है। मानो हर आदमी एक बोरी है... बड़ी बोरी...छोटी बोरी...मोटी बोरी...हड्डियों के ढांचे वाली बोरी... पसीने से लथपथ बोरी...सोने की मोटी चेन डाले 150 किलो की बोरी... कुछ बोरियों के हाथ में डंडा भी था... आवारा पशुओं को खदेड़ने के लिए ... जिनकी परिभाषा हर बोरी के लिए अलग-अलग होती है।

खैर... मेट्रो के खंबों के बगल से गुजरती सड़क पर ट्रैफिक से बचते-बचाते... आज़ादपुर रेडलाइट पर जबरदस्त ट्रैफिक डायवर्ज़न का पीछा करते करते ... वहीं फ्लाइओवर पर लगे जाम में दूसरे वाहनों के साथ सरकते... सावन में गर्मी औऱ उमस का लुत्फ उठाते किसी तरह आज़ादपुर मंडी जा पहुंचे। हर तरफ वही चित-परिचित बोरियां नज़र आईं। मुस्कुराहटों का आदान-प्रदान हुआ। जानते हैं बोरियों के साथ यही सबसे अच्छी बात होती है... आप धीरे-धीरे बोरी की तरह जीना सीख जाते हैं... हां, ये अलग बात है कि कभी आप आलू के तेवर में जीते हैं... कभी मिर्च सरीखे तो कभी दशहरी के समान...

आज यहां ज़्यादातर बोरियां ...रामकेला... थीं, यानि मंडी के जिस हिस्से में जाना हुआ वहां आम्बी की जो किस्म सबसे ज़्यादा थी वो थी रामकेला। हर बोरी रामकेला-रामकेला जप रही थी... 120 रुपए धड़ी(पांच किलो) से लेकर 160 रुपए धड़ी तक ...आप रामकेला आंम्बी खरीद सकते थे। कुछेक दुकानदार बोरियों को देखकर लग रहा था कि जैसे पिछली खरीद उन्होंने हरी मिर्चों की थी...और उसमें भी अलग से लाल मिर्च छिड़क रखी थी। आप साहब होंगे अपने घर के ...ये तो आज़ादपुर मंडी है साहब ...यहां सब बोरी है... सब माल पे डिपेन्ड करता है। ... अरे भाई लेकिन पांच किलो हरी मिर्च का मैं क्या करुंगा... मुझे तो घर के लिए आधा किलो ही चाहिए... किलो-आधा किलो की बात मत करो...लेना है तो धड़ी उठाओ ...वरना आगे बढ़ जाओ... आगे आपको बढ़ना ही पड़ेगा, क्यों कि रास्ता ही ऐसा है...कोई दो बोरी एक साथ नहीं निकल सकती हैं... एक बोरी को रुक कर साइड देनी ही पड़ती है।

किसी तरह हमनें भी 155 रुपए धड़ी में डील पक्की की। तौल का पक्का भरोसा तो दिया ही गया साथ में कच्चे आम के निहायती कच्चे होने का भी यकीन दिला दिया गया (और भरोसा वाकई में कायम रहा)। दो बैग में बीस किलो आम्बी भर ली गई तभी एक बोरी हमारी तरफ बढ़ी। उस बोरी ने आम्बी काटने के लिए पूछा... औऱ रेट बताया प्रति किलो दो रुपए। किसी तरह तीस रुपए पर बात तय की गई... औऱ वो बोरी धड़ाधड़ आम्बी काटने में लग गई...हां ये जरुर कहा कि इस बीच अगर कोई आ जाता है तो उसे हम डिस्काउंट वाला भाव ना बता दें।

थोड़ी ही देर में उस बोरी ने सारी आंम्बियां काटकर सामने ढेर लगा दिया। बिजली का गति से चलते हाथ... उंगलियों को बचाते हुए वो गजब की टेक्नीक के साथ अपने काम को अंजाम दे रहा था। इस बीच जाने मुझे क्या सूझा...मैने मोबाइल निकाला और उसकी तस्वीरें लेने लगा। बोरी की आंखें चमक उठी... कारण मुझे भी समझ नहीं आया। मेहनताने (पूरे तीस रुपए) से ज़्यादा वो तस्वीरों में खुश नज़र आया।

अब घर जाने का वक्त हो चला था... लिहाज़ा उन सभी बोरियों को छोड़कर जल्दी से वापस हो लिया। क्योंकि ज़्यादा देर यहां रुकता हूं तो मेरा दम घुटने लगता है आखिर कोई कब तक मैली-कुचैली बोरियों को बर्दाश्त कर सकता है।

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