गुरुवार, 9 जुलाई 2009

बाबा का बुलावा ...

रात अपनी रफ़्तार से बढ़ रही थी... और हमारी रफ़्तार पर सड़क कभी-कभार जैसे ब्रेक से लगा देती थी । रास्ता एकदम अनजान... और रात के इस पहर एकदम सुनसान...वीरान... अंधेरी सड़क पर सावधानी से आगे बढ़ते रोशनी के दो बिंदु... औऱ सन्नाटे में सबको अपने गुजरने का अहसास कराती थकी-हारी दो बाइक्स औऱ उन पर आढ़े-टेढ़े होकर बैठे तीन जवान , यानि मैं औऱ मेरे दो भाई ।

रात इतनी खूबसूरत भी हो सकती है... ये शायद अब मैं भूल चुका था...लेकिन इस रात के सफर ने फिर से वो यादें ताज़ा कर दीं जब रात-रात भर गांव में सोने की बजाय रात को निहारा करते थे। चांदनी में दमकता...स्याह आसमान... औऱ करीने से सजी तारों की झालरें । शहरवालों के लिए तो तारें देखना अब शायद दिन में ही मुमकिन है...क्योंकि रातों को आजकल शहरों में तारे भी सोने चले जाते हैं। एक अरसा हुआ जब दिल्ली में रात में आसमान में टिमटिमाते हुए तारे नज़र आते थे। बहुत संभव है कि कहीं दिखलाई भी पड़ते हों...लेकिन हमारे हिस्से की दिल्ली में तो तारे नज़र ही नहीं आते। इतने दिन बाद तारों को देखकर बहुत अच्छा लगा। उन्होंने भी टिमटिमाकर ...मुस्कुराते हुए अपनी खुशी जाहिर की... आशीर्वाद दिया... और शिकायत भी की कि क्यों मैं उनसे मिलने का वक्त नहीं निकाल पाता हूं ? खैर...मैने समझाया... शिकायत अपनी जगह जायज़ है और मेरी मजबूरी भी।

इतने में देखा चांद कहीं छिप गया है... बादलों की गुंजाइश अभी तो नहीं थी... आगे बढ़े तो मालूम पड़ा कि अब हम अरावली की पहाड़ियों के बीच से गुजर रहे थे और चांद हमसे आंखमिचौली खेलने के मूड में था। प्रकृति से ये निकटता मानो वरदान हो। एक जगह बीच रास्ते में बाइक रोकी तो पाया कि रात में शांत दिखने वाले इलाके रातभर जागते भी है। रात में जागने वाले जानवरों की अपनी जमात है जो अपने जगे होने का अहसास बखूबी कराती रहती है (हां इतना जरुर है कि जंगल के ये जानवर शहरी जानवरों से कम खतरनाक होते हैं, वैसे भी जंगल अगर जागता है तो अपनी जरुरत के चलते और शहर अक्सर हसरतों के चलते जागा करते हैं, जरुरत और हसरत का ये फर्क ही इसान को जानवर और जानवरों को इंसान बना देता है)। बहरहाल टेढ़े-मेढ़े रास्तों के बीच हम आगे बढ़ते रहे... और इस बीच जाने कितने ख्वाब मैं देखता गया... खुली आंखों से कितने ख्वाब मैं जहां-तहां अधूरे छोड़ता गय़ा।

तभी मुझसे आगे चलते भाई की बाइक जोर से उछली और वापस सड़क पर आकर फिर से उसी रफ़्तार से दौड़ने लगी। लेकिन मैने कुछ सैकेंड पहले ही आंखे मूंदने का मन बनाया था लिहाज़ा ज़ोर का झटका लगा भी उतनी ही ज़ोर से, लेकिन गिरने से बाल-बाल बच गए । आंखें एकदम से खुल सी गईं तो सफर का सुरुर(थकावट पढ़ें) भी हल्का (माने ताज़ा) हो गया और समय देखा तो रात के 12 बज चुके थे। तब याद आया कि इस सफर की शुरुआत शाम के चार बजे दिल्ली से हुई थी और 8 घंटे बाद भी हम बाइक चलाए जा रहे थे।

दरअसल हुआ यूं कि ऑफिस से दो दिन की छुट्टी थी, एक दोस्त के साथ जम्मू जाने का कार्यक्रम तय हुआ... लिहाजा तीन दिन की छुट्टी और ले ली गई। लेकिन जम्मू जाने से एक दिन पहले छोटा भाई आकर कहता है कि खाटू श्यामजी चलना है क्या ? इस तरह जम्मू जाना कैंसिल हुआ और बाबा के बुलावे पर खाटू धाम निकल पड़े। गुड़गांव से एक और भाई ने साथ जाना था तो उसे रास्ते से लेते हुए हम चलते गए। हालांकि रात के वक्त दिल्ली-जयपुर हाइवे पर चलने-चलाने का मेरा अनुभव नहीं था लेकिन दोनों भाइयों के ज़ोर देने पर कहीं रुकने की बजाय हम चलते रहे। हाइवे के साथ बसे गांव सो चुके थे लेकिन रात के सफर के मुसाफिर सुबह को तलाशते बढ़े जा रहे थे...चले जा रहे थे। दिल्ली की चकाचौंध से अलग बाइक चलाने का यहां अपना मज़ा था लेकिन रात में चौंधिया देने वाली ट्रक की लाइटों से थोड़ी दिक्कत जरुर हुई लेकिन श्याम नाम के सहारे रास्ता खुद-ब-खुद आसान होता गया।

इस सफर में खाटू धाम हमें सुबह जाना था, उससे पहले हमें रात भर(जितनी भी रात हमारे गांव पहुंचने तक बचेगी) एक गांव जुगलपुरा में रुकना था। यहां मेरे भाई के एक मित्र का घर है जो रात 10 बजे से लगातार फोन कर हमारी लोकेशन पूछ रहे थे कि आखिर कब हम पहुंचेंगे। रात एक बजे वो अपने गांव से 3-4 किलोमीटर दूर एक दूसरे गांव के सुनसान पड़े चौक पर हमारा इंतज़ार कर रहे थे। 3-4 किलोमीटर की ये दूरी... रेल के दो फाटक... और कुछ भौंकते कुत्तों को पीछे छोड़ते हुए आखिरकार हम जुगलपुरा पहुंच ही गए।

पूरा गांव सो रहा था... लेकिन मेरे भाई के मित्र के परिवार का एक-एक सदस्य जाग रहा था। सबको इंतज़ार था दिल्ली-गुड़गांव से चले तीन लड़कों का जिनमें से एक उनके बेटे का दोस्त है और बाकी दो के बारे में वो जानते भी नहीं है। जिनसे ना तो वो कभी मिले हैं और शायद दोबारा कब मिलना हो...ये भी पता नहीं। रात डेढ़ बजे कोल्ड ड्रिंक्स के साथ हल्का-फुल्का नाश्ता... औऱ कुछ देर के आराम के बाद रात का खाना । ऐसा अतिथि सत्कार मैने राजस्थान में ही देखा है।

उनके घर में मरम्मत का काम चल रहा था लिहाजा चारपाइयां घर के बाहर चबूतरे पर बिछा दी गईं ... बिस्तर पर पड़ते ही नींद आ गई ...लेकिन पूरी तरह नींद के आगोश में जाने से पहले दिन भर का सफर आखों के आगे ताज़ा हो उठा... थकावट जरुर थी लेकिन गांव की मिट्टी की खुशबू से ही रुह को आराम मिलना शुरु हो जाता है। ज़हन में सुबह जल्दी उठने का अलार्म अभी से बजने लगा था... बाबा के दर्शन को अब इंतज़ार नहीं हो रहा था...बस रात भऱ का फासला...सुबह तक का इंतज़ार...

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें