मंगलवार, 11 अगस्त 2009

दो हज़ार में घर का खर्च कैसे चलाउं...

दो हज़ार रुपए में क्या होता है...
ये सुनकर मैं ठिठका...
आवाज़ जानी -पहचानी लगी तो ...
धीरे से पलटा...
वो खड़ी थीं... अपनी सास के साथ...
अपने मोहल्ले के भोलू की ब्याहता...
शादी के करीब ७
साल बाद...
अपने दो बच्चों का हाथ थामे...
वही सवाल फिर से किया अपनी सास से...
बताओ... तो ... दो हजार रुपए में भला क्या होता है...
आवाज़ में शिकायत भी थी... दर्द भी...
और एक मजबूरी भी...
सास ने भी उसी बेचारगी से उसे देखा...
कहती भी क्या...
वो फिर बोली...
दो हज़ार में घर का खर्च कैसे चलाउं...
बच्चों के स्कूल की फीस...
बिजली-पानी का बिल...
घर में रोज़ चूल्हा कैसे जलाउं...
कैसे निभाउं ननद बिन्नो की रिश्तेदारी...
कैसे उसे नेग की साड़ी भिजवाउं...
वो दारु पीकर आता है...
तीन दिन रहता है बीमार...
चार दिन दिहाड़ी पर जाता है...
कैसे उसकी दवा-दारु करवाउं...
दो हज़ार में घर का खर्च कैसे चलाउं...
बारिश में टपकती है घर की छत...
दरवाज़े की कुंडी तक नहीं है...
जब छुपाने को कुछ है ही नहीं...
क्यों कमरे की टूटी दीवार की मरम्मत करवाउं...
दो हज़ार में घर का खर्च कैसे चलाउं...
मां... आंखों से तो तुझे भी नहीं दिखता है...
डॉक्टर ने कहा है ऑपरेशन होगा...
तू ही बता...
कैसे शहर में तेरा इलाज करवाउं...
गिरवी रखे हैं खेत...
जब से की है बिन्नों की शादी...
कर्जा अब तक उतरा नहीं है...
खेत कैसे वापस छुड़ाउं...
दो हज़ार में घर का खर्च कैसे चलाउं...
वो कहता है घर छोड़ कर चली जा...
तू ही बता मां...
इन दोनों बच्चों को लेकर अब मैं कहां जाउं...
तू ही बता मां...
दो हज़ार में घर का खर्च कैसे चलाउं...
अब दोनों के आंसू मुझसे देखे नहीं गए...
जेब में हाथ डालकर आगे बढ़ गया...
आखिर २५०० की अपनी चकाचक डेनिम...
मैं कब तक उनसे छुपाउं...
बाकी का हिसाब जो लगाता...
तो शायद उनके तीन-चार महीने का बजट हो जाता...
कैसे मैं उनसे नज़रें मिलाउं...
सच ही तो कहती थी वो...
दो हज़ार में घर का खर्च कैसे चलाउं...
दो हज़ार में घर का खर्च कैसे चलाउं...

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