मंगलवार, 1 अक्तूबर 2013

गली गली गुलज़ार ...इस शहर का हाल यही है

सुना था ...
कुछ लफ्ज़ छूट गए थे वहां ...
जहां आपके लबों पर पहली बार हमारा नाम आया था...
वो जगह ...
रास्ते का वो किनारा  ...
खोद डाला है ...
सुना है सीवर लाइन की मरम्मत होनी है ....
अब वो लफ्ज़ किसी दरिया की नज़र होंगे ...
मलबे का पहाड़
राह देख रहा है रोज़ ...
कब उसे दफ्न किया जाएगा ...
अब उसे भी बारिशों का इंतज़ार है ...
रोज़ रोज़ राहगीरों की ठोकरें ...
औऱ गालियों का स्वाद ...
उसकी तबियत से मेल नहीं खाता ...
मलबा है तो क्या हुआ...
दिल तो उसका भी धड़कता है ...
बारिशों में बह निकलेगा कहीं...
या फिर बन जाएगा रास्ते की कीचड़...
और लिपटा करेगा लोगों के पैरों से ...
गोया ...कोई तो माफी दिला देगा ...
ज़िल्लत से ... जहन्नुम से ...
वहीं कुछ दूर ... सुना था ...
कुछ महीनों पहले ही सड़क बिछाई गई थी ...
उस पर भी पैबंद लगने हैं ...
कई जगहों से उधड़ गया है ...
वो जो भी कुछ पहना था उसने ...
इन बारिशों से पहले ...
डामर ... हफ्तों पहले आ चुका है ...
ड्रमों से रिस रहा है ...
शायद उससे भी सड़क की बदहाली देखी नहीं जाती ...
किनारे एक उफान सा पड़ा है ...
तो कहीं एक मखमली चादर की तरह जा लिपटा है ...
सड़क से ... आखिर कब तक इंतज़ार होगा ...
जगह-जगह बोर्ड लगे हैं ...

 " आदमी काम पर है ... असुविधा के लिए खेद है "
याद है मुझे ...
ऐसे हर बोर्ड की तस्वीर खींचने के लिए ...
बच्चे की तरह मचल जाती थी तुम ...
ऐसी जाने कितनी अनगिनत तस्वीरें ...
सालों से सहेज कर रखी थी तुमने ...
उस एल्बम का वज़न अब तुमसे संभलेगा नहीं ...




वहीं सड़क किनारे ...
खुले हैं टेलीफोन के बक्से ...
अरसे से सुधारे जाने की हसरत लिए ...
और तेरे बालों की लटों की तरह ...
फैले हैं बिजली के तार ...
और उनको फुर्सत ही नहीं ....
इन लटों को सुलझा दें...
इन तारों को हटा दें ...
किस्मत की लकीरों की तरह ....
आड़ी तिरछी हो चली हैं ....
सड़कों पर खींची गई रास्ता दिखाती वो रेखाएं ...
तुम्हारी ज़िंदगी की ही तरह ...
समतल नहीं रहा उसका धरातल भी ...
फुटपाथ-डिवाइडर पर रखे गमले ...
शायद किसी के घर की अमानत बन गए हैं ...
कुछ टुकड़ों में जी रहे हैं ....
सुना है कुछ पौधे अभी भी जिंदा हैं ...
उन्हें पानी देते आना ग़र मुलाक़ात हो तो ...
वो बेंच ...
CTSY - Self

वहीं सामने वाले पार्क में...
जहां तुम बैठा करती थी ...
अब आओगी ... तो दो फूल लेते आना ...
उस बेंच की अब यादें बची हैं ...
शरीर रात के अंधेरे में किसी ने बेच खाया ...




वहीं पार्क के पास
कूड़ा फेंकने  जाना ... तुम्हें अच्छा नहीं लगता था ना ...
अब कूड़े के लिए सुबह रोज़ गाड़ी आती है ...
लेकिन जब वो आए ...
तो सारी खिड़कियां - दरवाज़े बंद कर लेना ...
गाड़ी चली जाती है ... लेकिन
कूड़ा जैसे हवा में घुला हुआ वहीं छूट जाता है ...
सुना है अंधेरे से अब भी डर लगता है तुम्हें ...
उम्र बिल्कुल भी नहीं बदल पाई तुम्हें ...
अंधेरे का डर निकाल दो ...
हां अलबत्ता बिजली के बिल से शायद तुम्हें डर लगे ...
तुम्हें नहाना बहुत पसंद था ना ...
अब आकर आदत बदल लेना ...
पीने का पानी भी ... हिचकियों की तरह आता है ...
और हां ...
जब आना हो तो ... फोन से इत्तला करना ...
वो खत जो तुमने जाने के बाद लिखा था ...
महीने बाद गैराज में पड़ा मिला था ...
कुछ खत और कागज़ात...
अक्सर वहां मिल जाया करते हैं ...
एक पूरा दिन खत समझने में लगा था ...
और तुमको अभी तक नहीं समझ पाए ...
औऱ शहर ...
शहर अब भी नहीं बदला है ...
चुनावों का मौसम जरुर है ...
शायद कुछ दिनों के लिए चमक जाए ...
वैसे शहर भर का हाल यही है ...
हर शहर का हाल यही है ...
तुम आओ तो बदल जाए ...
तुम आओ ... तो शायद संभल जाए ...
बस वो लकीरें नहीं बदलेंगी ...
जो तुमने हर दरवाज़े के पीछे बनाई थी ...
एक पूरा शहर बसा दिया था तुमने
चंद रोज़ में ...
वहां अब जाले लगे हैं ...
इस शहर की ही तरह
उस घर का भी हाल यही है ...
शायद इस शहर के  ... हर घर का हाल यही है ...
तुम आओ तो बदल जाए ...
तुम आओ ... तो शायद संभल जाए ...

3 टिप्‍पणियां:

  1. रात आधी से ज्यादा गई थी, सारा आलम सोता था,
    नाम तेरा ले ले कर कोई दर्द का मारा रोता था..

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  2. gali gali gulzar...es sheher ka haal yahi hai....tum chali gayi thi us din khushi ka daaman pakde..mera dil bezaar ab tak yahi hai....

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  3. Bahut khubsurati ke sath likha hai...
    Hasya ras aur Shringar ras ka samagam kiya hai aapne apni is rachna me, jo ki bahut ki dhara-pravah hai...
    badhayee ho.

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