शनिवार, 30 नवंबर 2013

. . . . . . . ये रंग जिंदगी के . . .


ये हाथ कागज़ों से 
ये लफ्ज़ बादलों से
लिखते हुए किस्सा तेरा
हुआ ज़िक्र फासलों से . . .
पगडंडियों सी लिखावट
धुलती चली गई वो
हर शाम तुम्हें लिखा
बेताब बारिशों से . . .
हर रंग से लिपटकर
ख्वाबों ने जी समेटा
हुई धड़कनें मलंग सी
थामा जो हसरतों से . . .
उस धूप की इबारत
है वक्त के सफे पर
वो हाशिये पर लिखना
फिर रोज़ आदतों से . . .
दुआओं की ली स्याही
लिखा इबादतों से
है जिंदगी को बख्शा
खुद से ही ... ख्वाहिशों से . . . 
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हर राह पर भटक कर
सरे-राह खुद से मिलना
हर मोड़ पर हम उलझे
क्या पाया मंज़िलों से
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रविवार, 24 नवंबर 2013

तुम एक सोच हो ...

क्यों ...
आखिर क्यों तुम बासी हो चली हो ...
ठंडी पड़ी उस चाय की तरह ....
जिसे नुक्कड़ का चायवाला बार बार गर्म कर परोस देता है ....
और सुड़क सुड़क कर तुम
पी जाते हो चुपचाप बिना किसी शिकायत के ...
उस चाय को जिसमें पत्ती से ज़्यादा ...
चाय के बर्तन का जंग महकता है ...
जिसमें चाय की पत्ती से ज़्यादा
उस पेड़ के पत्ते मिले हैं
जो ऊपर से सब कुछ देखता रहता है चुपचाप
औऱ मुस्कुराता है...
नीचे जुटी बुद्धि-परजीवियों की जमात
और उनकी फेसबुकिया जुगाली पर ...
क्यों ...
आखिर क्यों तुम पर असर डालने लगी हैं ...
इस नश्वर दुनिया की मायावी बातें ...
और घिनौनी लगने लगी हो तुम ...
आज जब चाय की इस दुकान पर अरसे बाद मिली हो ...
हां घिनौनी ...
बिल्कुल कांच के इस गिलास की तरह...
जिसे खरीदने के बाद कभी धोया नहीं गया ...
बस खंगाल दिया गया ...
जूठे बर्तनों से भरे एक बड़े से टब में ....
जो गंदला उठा है...
जमाने भर के लोगों की सोच से...
जो वो बची-खुची चाय के साथ
उसी गिलास में जमी
पपड़ाई मलाई की परत के साथ छोड़ गए
तभी रह रहकर स्वाद चाय से ज़्यादा ...
जग की झूठन का कौंचता है...
क्यों ...
आखिर क्यों...
फटे हुए दूध के उबाल सरीखे...
बेस्वाद ... अपने विचारों को समेटे हो...
हंसी ठठ्ठा करते चार लोगों का ओपिनियन पोल नहीं  ...
जो ऐसे किसी भी पेड़ के नीचे बैठकर ...
ज़माने भर को चार गालियां देकर ...
खीसें निपोरते हैं ...
टूटी चारपाईयों पर बैठने वाले ये लोग ...
बिना रीढ़ के ...
तुम इनसे परे हो ...
तुम एक सोच हो...
तुम्हें जिंदा रहना है ....
कहा है ना
फेसबुकिया जुगाली नहीं...
बुद्धि-परजीवियों की जमात से परे ...
ब्लॉगिक आत्म-मुग्धता से दूर ...
तुम एक सोच हो...
तुम्हें जिंदा रहना है ....

शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

अस्पताल बदहाल... मरीज़ बेहाल

' अस्पताल ' ...  शब्द अपने आप में ही किसी को बीमार कर देने के काबिल है अगर इससे पहले ' सरकारी '  शब्द और जुड़ा हो
Image Ctsy - Google
 ... और ये आम धारणा नहीं है बल्कि अपने अनुभव से भी बता रहा हूं। 
( *** अगर आप किसी एमरजेंसी के शिकार नहीं हैं तो , भगवान ना करे आप कभी हों , अस्पताल चाहे जो भी हो)

बेशक सभी सरकारी अस्पताल ऐसे नहीं है, बेशक ये सिर्फ अस्पताल स्टाफ या सरकार की गलती नहीं है, बेशक मरीज़ों की तादाद ही इतनी है कि सरकारी अस्पतालों का सिस्टम खुद कराह रहा है, लेकिन हम सब कुछ देखकर आंखे मूंदकर तो नहीं रह सकते।

आप एम्स और सफदरजंग की बातें करते हैं लेकिन क्या राजधानी दिल्ली के कोने-कोने में जो अस्पताल हैं या डिस्पेंसरीज़ हैं,  कभी आपका वास्ता उनसे पड़ा है। ... अगर जवाब हां है तो आपसे माफी चाहता हूं कि आपको फिर से वो सब याद दिला रहा हूं ...लेकिन अगर जवाब ना में है तो दुआ करता हूं कि आपको कभी उन अस्पतालों की तरफ जाने की भी नौबत ना आए, जो आपका शरीर बेशक दुरुस्त कर दे लेकिन आपको ज़हनी तौर पर बीमार कर देते हैं।

हाल ही में एक अस्पताल में जाना हुआ जो सरकारी भी था और बीमार कर देने वाला भी । ग़ौरतलब बात ये है कि ये अस्पताल एक स्पेश्लाइज्ड अस्पताल है औऱ आंखों के इलाज के लिए जाना जाता है । ये कोई जनरल अस्पताल नहीं था जहां हर तरह की बीमारी के इलाज के लिए लोग पहुंचते हैं।

अनुभव ही ऐसा रहा कि आपसे जरुर शेयर करना चाहूंगा। 

शुरुआत अस्पताल के मेन गेट से ही हुई। जहां दो गार्ड वर्दी में तैनात थे और एक असिस्टेंट सादी वर्दी में । एक गाड़ी मुझसे पहले ही अदर जा रही थी और दूसरी गाड़ी देखते ही उन्होंने दरवाज़ा करीब-करीब गाड़ी के बोनट पर ही बंद कर दिया और ऊपर से शिकायत भी दर्ज कराई कि मैं उन्हें गाड़ी के बोनट पर बिठा कर ले जाना चाहता हूं । अपने एक परिचित का हवाला देने पर ही अंदर जाने दिया गया नहीं तो वीज़ा ना होने के चलते मुझे शायद वापस लौटा दिया जाता ।

प्राइवेट अस्पताल भले ही पैसे लेकर ... लेकिन पार्किंग की व्यवस्था करा देते हैं लेकिन सभी सरकारी अस्पतालों में ऐसी किसी सुविधा की अपेक्षा आप ना करें तो बेहतर होगा । अगर अपनी गाड़ी से जा रहे हैं तो मेरी सलाह यही है कि गाड़ी उपयुक्त पार्किंग में ही खड़ी करें इधर-उधर नहीं। यदि आप ऐसा नहीं करते हैं तो अस्पताल के साथ-साथ आपको थाने के भी चक्कर काटने पड़ सकते हैं । यहां आपकी नज़रें हटीं और वहां आपकी गाड़ी। चोरी नहीं जनाब, एकदम खालिस सरकारी तरीके से सरकारी औऱ प्राइवेट स्टाफ मिलकर आपकी गाड़ी को एक अदद क्रेन की सहायता से ले जाते हैं ।

भले ही आपकी मजबूरी हो ...  "  लेकिण गलती तै गलती सै जनाब ... इब तै या तै थाणे तै अपणी गाडी छुड़ा लियो या फिर कोर्ट तै या फिर  ..." । जी हां ... यही तो होता है ना । 

खैर ... अपन एक बार ये सब बाहर होता देख चुके थे, जब मौके पर मौजूद जनाब ने मुझे भरोसा दिया कि वो मेरी गाड़ी को हाथ तक नहीं लगाएंगे लेकिन कोई दूसरी क्रेन वाला उनके इलाके में आकर गाड़ी ले जाए तो उस हालत में जनाब कुछ नहीं कर पाएंगे । और मेरे देखते ही देखते उन जनाब ने एक से दो चक्करों में वहां खड़ी सारी बाइक्स सुरक्षा के लिहाज़ से थाने में जमा करवा दी और एक गाड़ी के साथ तीसरे चक्कर में वो ऐसा ही कर रहे थे। मैने  कोशिश की औऱ गाड़ी अस्पताल के भीतर पार्क करने में कामयाब रहा ।

दरअसल जान-पहचान के एक सज्जन यहां कार्यरत हैं लिहाज़ा ज्यादा जद्दोजहद नहीं करनी पड़ती है , काम जहां रुकता है जान-पहचान काम करा देती है , नहीं तो मेरे परिवार वालों के मुताबिक ऐसे किसी अस्पताल की तरफ रुख करना भी मुझे पसंद नहीं। लेकिन ये पसंद हर किसी की तो नहीं हो सकती है । जरुरत और मजबूरी ... पसंद से नहीं ... बेवक्त आते-जाते हैं।

Image Ctsy - Google

बाहर से अस्पताल जितना साफ-सुथरा लगा ( जी हां ... सरकारी औऱ साफ-सुथरा) ... भीतर उतनी ही भीड़ और रेलमपेल थी।
त्योहारों के दिनों में आप शायद कभी नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली या फिर निज़ामुद्दीन रेलवे स्टेशन गए हों... वहां का हाल आपने देखा होगा ... दमघोंटू भीड़ ... कानों को बहरा कर देने वाला शोर ... बदबू ऐसी कि आप सांस लेने से परहेज़ करें।  कमोबेश यही हाल हर अस्पताल का है... सरकारी अस्पताल का है । होता है या फिर हो जाता है ।


आप अंदाज़ा ही नहीं लगा पाते हैं कि आखिर इतने लोग आते कहां से हैं ... चाहे वो सड़कें हों... रेलवे स्टेशन... बस अड्डे ... मेट्रो ... बसें ... बाज़ार या फिर बेशक अस्पताल ... आखिर इतने लोग ... वो भी इतनी तकलीफ में । ऐसे माहौल में उनका ठीक होना वाकई किसी चमत्कार से कम नहीं है। गलती डॉक्टरों की नहीं है वो भी इंसान हैं। काम का बोझ ही इतना ज्यादा हो कि कभी कभी वो झल्लाहट के रुप में दिखाई दे जाता है।

एक डॉक्टर ने एक मरीज़ को अपना नंबर दिया ताकि कभी जरुरत पड़ने पर वो फोन कर सके। और जितना उनके वार्तालाप से मैं समझ पाया ये एक दिन पहले की घटना थी और वो मरीज़ लगातार डॉक्टर साहब को फोन पर फोन किए जा रहा था। भले आदमी वो डॉक्टर है, आप खुशकिस्मत हैं कि आपको नंबर मिला ... बेजा इस्तेमाल तो ना करो। डॉक्टर साहब को परेशान तो ना करो। और डॉक्टर साहब मैने भी देखा था ... मरीज़ नासमझ था, आप तो समझदार हैं... भले आदमी क्या बातचीत का वो लहजा आपको या किसी भी डॉक्टर को शोभा देता है । 

ओपीडी ... हर अस्पताल की ओपीडी जैसी ही थी । भीड़ और शोर-शराबा ... मिन्नतें ... बदतमीजियां ... बदइंतजामी ... बेबसी ... अपने नाम की आवाज़ सुनने को आतुर कान और डॉक्टर की कुर्सी की तरफ टकटकी लगाकर देखती दसियों-बीसियों जोड़ी आंखें।

और इसी भीड़ के बीच एक बुजुर्ग आऱाम से खाना खा रहा था... भूख सब कुछ भुला देती है ।

 इसी शोर-शराबे के बीच एक महिला अपने पति के साथ बैठी थी, पति फर्श पर सो रहा था... शायद चेकअप के लिए ही आया था।

इसी चीख-चिल्लाहट के बीच कई जोड़ी बुजुर्ग आंखें चेहरे पर बिना किसी शिकायत के ... जहां जगह मिली वहीं बैठ कर ... अपना नंबर आने का इंतज़ार कर रही थी। उम्र के इस पड़ाव पर कोई अकेला था तो कोई किसी अपने के साथ ... चेहरा सब बयां कर देता है ।

इसी भीड़भाड़ के बीच एक मां अपने बच्चे के साथ चली आ रही था... मां आगे - आगे और बच्चा पीछे पीछे... बच्चा आंखों के अलावा शायद किसी और बीमारी से भी पीड़ित था... उसको उस तरह से चलते हुए देखना तकलीफदेह था... चलना शायद उससे भी ज्यादा ... लेकिन वो चल रहा था ... अपने पैरों पर ....ठीक होने की उम्मीद के साथ....

शायद ऐसी ही किसी उम्मीद के साथ हम लोग भी जी रहे हैं ...

साथ ही यहां उन सैकड़ों, हज़ारों ...लाखों डॉक्टर्स, नर्सिंग स्टाफ को भी नमन है जो तमाम उपलब्ध सुविधाओं के बीच अपने कर्तव्य का निर्वाह कर रहे हैं...

बेशक कई बार जिंदगी अपने ही तरीके से सभी को जीने का नज़रिया सिखाती है, जीने की राह दिखाती है , लेकिन जाने कितनी जिंदगियां ... इन्हीं अस्पतालों की बदौलत आज जि़ंदा हैं ... उनका वजूद कायम है। 
बेशक कई बार मायूसी होती है ... लेकिन उम्मीद ... उम्मीद हर मर्ज़ की दवा है ... और भरोसा हर दर्द का इलाज ।

बुधवार, 6 नवंबर 2013

Delhi : You Suggest - दिल्ली समस्याएं और समाधान


एक कदम हम बढ़ाएं
एक कदम तुम
एक कदम हम बढ़ाएं
एक कदम तुम
गाएं खुशियों का तराना
गाएं खुशियों का तराना
साथी हाथ बढ़ाना ... 
साथी हाथ बढ़ाना ...


एक नुक्कड़ नाटक में इन पंक्तियों का इस्तेमाल किया था कॉलेज के दिनों में, आज भी प्रासंगिक है... हमेशा रहेंगी । क्योंकि बदलाव, सुधार या विकास तभी हो सकता है जब आपके परिवेश में एक से ज़्यादा आयाम उसे अपनाना चाहते हों। सरकार हो, विपक्ष या आम जनता ... जिम्मेदारी सभी की है। 

इससे पहले हम बात कर चुके हैं उन समस्याओं की, जिनसे आपकी दिल्ली, हमारी दिल्ली रोज़ाना जूझ रही है, हम बात कर चुके हैं उन मुद्दों की जो हमारी दिल्ली के इंटीग्रेटेड विकास के लिए अवश्यंभावी है। मुद्दे हमारे हैं तो रास्ता भी हमें ही सुझाना होगा। समस्याएं हमारी दिल्ली की हैं तो समाधान भी हमें ही सुझाना होगा ताकि इन तमाम समस्याओं से हमें जल्द से जल्द मुक्ति मिल सके।

अपराध और भयमुक्त दिल्ली
राजधानी दिल्ली को अपराध मुक्त और भयमुक्त बनाना होगा , जहां आम नागरिक खुद को सुरक्षित महसूस करें तो महिलाएं भी बिना किसी डर के जिएं।
दिल्ली पुलिस में खाली पड़े पदों को जल्द से जल्द भरा जाए, पुलिस को अत्याधुनिक हथियार उपलब्ध कराए जाएं, उपयुक्त ट्रेनिंग दी जाए। 
राजधानी के बॉर्डर और महफूज़ किए जाएं। 
वीआईपी सुरक्षा में तैनात जवानों को आम लोगों की सुरक्षा में भी इस्तेमाल किया जाए। 
किसी भी देश की पुलिस का मॉडल आंख मूंदकर अपनाया ना जाए, पुलिसिंग का एक ऐसा मॉडल विकसित किया जाए जो हमारी दिल्ली की जरुरत है। 
दिल्ली जैसे शहर में जितनी विविधताएं हैं उतनी ही सुरक्षा की तरह-तरह की जरुरतें भी। 
पुलिस भले ही गृह मंत्रालय के अधीन हो या दिल्ली के , आम नागरिक का खुद को सुरक्षित महसूस करना बहुत जरुरी है।

महंगाई से मुक्ति
जिस तरह से महंगाई लगातार नए रिकॉर्ड बना रही है, सरकार को ये देखना होगा कि महंगाई किसी भी तरह काबू से बाहर ना जाए। 
जमाखोरों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाए, मिलावटखोरों, मुनाफाखोरों को ना बख्शा जाए।
सप्लाई और डिमांड का सामंजस्य बनाकर रखा जाए, नए नियम बनाने की शायद जरुरत ना पड़े लेकिन जो भी नियम हैं उनका कड़ाई से पालन किया जाए। 
करप्शन को किसी भी स्तर पर बर्दाश्त ना किया जाए, महंगाई तभी काबू में रह पाएगी।

बिजली-पानी का अधिकार
निजीकऱण अगर समाधान है तो उसे समस्या ना बनने दिया जाए। उसे लाल-फीताशाही की भेंट ना चढ़ने दिया जाए।
निजी कंपनियों पर नज़र रखी जाए, औचक ऑडिट को प्राथमिकता दी जाए, लोगों से जुड़ा मुद्दा है, लिहाज़ा ज्यादा से ज्यादा लोगों को शामिल किया जाए ताकि कहीं बिल ज्यादा है तो क्यों है ये पता किया जा सके। पारदर्शिता बहुत जरुरी है, इसके लिए सिस्टम में लोगों को शामिल करना बहुत जरुरी है, खासकर उन लोगों के लिए जिनका उनसे सीधा सरोकार है।
साथ ही जो लोग कानून का पालन नहीं करते हैं उनके खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई की जाए, पानी-बिजली चोरों को ना बख्शा जाए।

विकास में सामंजस्य
विकास में सामंजस्य होना बहुत जरुरी है ये मैने पहले भी कहा था। सामंजस्यता के अभाव में विकास अपनी उपयोगिता खो बैठता है।
आबादी अगर 10,000 लोगों की है तो सुविधाएं भी उसी अनुपात में हो, अन्यथा विकास और सुविधाएं अपनी सार्थकता खो बैठते हैं।
या फिर दो बड़ी सड़कों को जोड़ने वाली सड़क बदहाल हो तो उसकी कोई उपयोगिता नहीं रह जाती है।
एक फ्लाईओवर या अंडरपास बनता है तो उसके आसपास भी ध्यान देना होगा, विकास में सामंजस्य जरुरी है।

विकास की समग्रता
विकास की समग्रता होना बेहद जरुरी है, अगर आप कनॉट प्लेस को रेनोवेट करते हैं तो पुनर्वास कॉलोनियों के विकास का भी आपको ध्यान रखना होगा।
अगर नई दिल्ली की सड़कें चमचमाती हुई हों तो बाहरी दिल्ली के लोगों को भी सड़क का हक है।
बारिश में शहर तालाब ना बने ये प्लानिंग कौन करेगा।
टाउन प्लानिंग में ध्यान दिया जाए। मास्टर प्लान का विधिवत पालन किया जाए और उन चीज़ों को जगह दी जाए जो शहर की जरुरत हैं।
सरकारी एजेंसियों की जिम्मेदारी तय की जाए।

मैंने पहले ही कहा है ... हमें वर्ल्ड क्लास दिल्ली चाहिए थर्ड क्लास नहीं !!!

प्रदूषण से निवारण
प्रदूषण शहर को धीरे-धीरे खा रहा है।
हमें सड़कों पर वाहनों की संख्या पर अंकुश लगाना होगा।
रात के वक्त दिल्ली शहर की सड़कों से गुजरने वाले भारी वाहनों की तादाद को काबू में करना होगा। हमें वैकल्पिक उपायों पर जल्द से जल्द काम करना होगा।
प्रदूषण फैलाने वाले बची-खुची फैक्ट्रियों को शहर से बाहर निकाल फेंकना होगा।
एक शहर को उसमें रहने वाले लोग ही बचा सकते हैं, लिहाज़ा हमें अपने शहर को खुद ही बचाना होगा।

बेहतर सार्वजनिक परिवहन सेवा
शहर को एक इंटीग्रेटेड ट्रांसपोर्ट सिस्टम की दरकार है, मेट्रो को शहर के हर कोने तक पहुंचाया जाए।
जहां मेट्रो नहीं जा सकती वहां मोनो रेल या फिर कोई दूसरा उपयुक्त ट्रांसपोर्ट सिस्टम, जैसे दिल्ली परिवहन सेवा यानि डीटीसी की उपलब्धता दिन के 24 घंटों किसी ना किसी तरह बरकरार रखी जाए।
ग्रामीण सेवा , सारथी सेवा जैसी सेवाओं को रेग्युलेशंस के दायरों में चलाया जाए।
सार्वजनिक परिवहन सेवा को सस्ता रखा जाए साथ ही सुरक्षित भी।

बेहतर ट्रैफिक व्यवस्था और जाम से निजात
एक बेहतर ट्रैफिक सिस्टम, सोचे-समझे और सिर्फ जरुरी डायवर्जन। 
वीआईपी मूवमेंट के समय बेहतर प्लानिंग।
लोगों को समय-समय पर ट्रैफिक नियमों की जानकारी देते रहना, अवेयरनेस कैंपेन चलाना। 
और साथ ही लोगों को गलती करने से रोकना प्राथमिकता रहे बजाय चालान काटने के।

शहर की हरियाली का ध्यान
पेड़ शहर को जिंदा रखते हैं। हमें जिंदा रहने के लिए अपने पेड़ों को जिंदा रखना होगा।
रिज इलाके को अतिक्रमण से बचाना होगा।
ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाने होंगे, और पेड़ों को कटने से बचाना होगा। कई बार पेड़ सरकारी एजेंसियों की लापरवाही की भेंट चढ़ जाते हैं तो कई बार लोग अपनी बेवकूफी के चलते जान-बूझकर भी पेड़ों को कटवा देते हैं।
जलस्तर को भी बरकरार रखना होगा।
ध्यान सरकार को भी रखना होगा, संस्थाओं को भी और हमें भी। 

साफ-सुथरा शहर और गंदगी से छुटकारा
शहर को साफ सुथरा रखना जितना सरकार की जिम्मेदारी है उतनी ही यहां रहने वाले लोगों की भी।
अपने स्तर पर सभी को प्रयास करने होंगे।
हमें ध्यान रखना होगा कि हम अपने आस-पास गंदगी ना फैलाएं।
और उसके बाद सरकार को ये जिम्मेदारी लेनी होगी कि वो शहर को साफ सुथरा रखे और जिस सरकारी एजेंसी की भी जिम्मेदारी है वो पूरी ईमानदारी से अपने काम को अंजाम दे, नहीं तो एक बार हालात काबू से बाहर जाने के बाद वापस ठीक करने में ज्यादा प्लानिंग, ज्यादा मेहनत और ज्यादा फंड्स की जरुरत होगी। शहर को कूड़ाघर बनने से रोकना होगा। 

अवैध क़ॉलोनियों का नियमन
अवैध कॉलोनियों का नियमन हो या ना हो ये भले ही बहस का मुद्दा रहा हो लेकिन अब ये इसी शहर का एक अभिन्न अंग बन चुकी हैं जहां एक शहर का आबादी का एक बड़ा हिस्सा रहता है।
अब ऐसे हालात में कोरे चुनावी वादों को छोड़कर इन कॉलोनियों के लिए एक उपयुक्त पॉलिसी की जरुरत है जो इनके अस्तित्व को विकास की समग्रता प्रदान करे। 

यमुना को बचाना होगा
एक नदी एक शहर को जीवन देती है जबकि दिल्ली एक ऐसा शहर बन गया है जो उस नदी का ही काल बन गया।
हज़ारों करोड़ों रुपए यमुना को साफ करने के नाम पर खर्च कर दिए गए लेकिन हालात जस के तस। कहां गए ये जांच का विषय है , ये बाद का विषय है... फिलहाल हमें हर हाल में यमुना हो बचाना होगा।
खादर इलाके में अतिक्रमण को रोकना होगा।
सरकारी या गैर-सरकारी हर तरीके के निर्माण पर नज़र रखनी होगी।
नदी में गिरने वाले नालों को जितना संभव हो साफ करना होगा, सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट्स की संख्या और क्षमता बढ़ानी होगी।
साथ ही नदी के बहाव को रोकने, बांधने की कोशिश करने से भी बचना होगा।

सीवरेज सिस्टम में सुधार
शहर के कई हिस्सों में सीवरेज सिस्टम सालों पुराना है, आउटडेटेड हो चुका है, ऐसे में हल्की सी बारिश भी झेल पाना उसके बूते से बाहर हो जाता है।
ऐसे में भुगतना वहां के लोगों को पड़ता है।
ऐसी जगहों की पहचान कर जल्द से जल्द इस सिस्टम को बदलना पड़ेगा।
साथ ही शहर के कई हिस्सों में सीवरेज सिस्टम है ही नहीं ऐसे में लोगों की इस बुनियादी जरुरत को वहां तक पहुंचाना सरकार की जिम्मेदारी है, ये कोई कोरा चुनावी वायदा नहीं होना चाहिए।  

भ्रष्टाचार मुक्त दिल्ली
दिल्ली को भ्रष्टाचार मुक्त बनाने के लिए कड़े कदम उठाने होंगे।
घूस लेने वालों के साथ साथ घूस देने वालों पर भी कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए।
हेल्पलाइन नंबर, पहचान गुप्त रखना, सही शिकायत पर कड़ी कार्रवाई और झूठी शिकायत पर सज़ा ... सिस्टम में सब कुछ है, सवाल सिर्फ मुकम्मल इस्तेमाल का है।
हमें जागरुक होना होगा, जहां जरुरत है वहां लोगों को जागरुक भी करना होगा ताकि भ्रष्टाचार मुक्त दिल्ली का सपना सिर्फ सपना बनकर ना रह जाए।

और अब बात सबसे जरुरी और अहम समाधान की ...

चुनावी वादों की सच्चाई
चुनावों के वक्त नेता वादे तो करते हैं
लेकिन क्या जीतने के बाद ये वादे पूरे भी किए जाते हैं,
क्या जीतने के बाद नेता पलटकर लोगों का रुख भी करते हैं।
जीतने के बाद नेता आम से खास हो जाते हैं या फिर जो खास हैं वो खास ही रहते हैं।
ऐसे में उन तक पहुंचा कैसे जाए, इस पहेली को आम जनता को ही सुलझाना होगा।
जनता और नेता के बीच के इस फासले को पारदर्शिता के उसी हथियार के जरिए मिटाना होगा जो लोकतंत्र ने हमें इस सिस्टम के हर स्तर पर प्रदान किया है। 

समस्याएं हैं तो समाधान भी है
लोग परेशान हैं तो अनजान भी हैं ...
जनता से जुड़े हर मुद्दे को उठाना होगा ...
सिस्टम में पारदर्शिता को हथियार बनाना होगा ...
दिल्ली को चलाने में बढ़े लोगों की भागीदारी
हर आवाज़ को हमें ...
जनता की आवाज़ बनाना होगा।