शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

अस्पताल बदहाल... मरीज़ बेहाल

' अस्पताल ' ...  शब्द अपने आप में ही किसी को बीमार कर देने के काबिल है अगर इससे पहले ' सरकारी '  शब्द और जुड़ा हो
Image Ctsy - Google
 ... और ये आम धारणा नहीं है बल्कि अपने अनुभव से भी बता रहा हूं। 
( *** अगर आप किसी एमरजेंसी के शिकार नहीं हैं तो , भगवान ना करे आप कभी हों , अस्पताल चाहे जो भी हो)

बेशक सभी सरकारी अस्पताल ऐसे नहीं है, बेशक ये सिर्फ अस्पताल स्टाफ या सरकार की गलती नहीं है, बेशक मरीज़ों की तादाद ही इतनी है कि सरकारी अस्पतालों का सिस्टम खुद कराह रहा है, लेकिन हम सब कुछ देखकर आंखे मूंदकर तो नहीं रह सकते।

आप एम्स और सफदरजंग की बातें करते हैं लेकिन क्या राजधानी दिल्ली के कोने-कोने में जो अस्पताल हैं या डिस्पेंसरीज़ हैं,  कभी आपका वास्ता उनसे पड़ा है। ... अगर जवाब हां है तो आपसे माफी चाहता हूं कि आपको फिर से वो सब याद दिला रहा हूं ...लेकिन अगर जवाब ना में है तो दुआ करता हूं कि आपको कभी उन अस्पतालों की तरफ जाने की भी नौबत ना आए, जो आपका शरीर बेशक दुरुस्त कर दे लेकिन आपको ज़हनी तौर पर बीमार कर देते हैं।

हाल ही में एक अस्पताल में जाना हुआ जो सरकारी भी था और बीमार कर देने वाला भी । ग़ौरतलब बात ये है कि ये अस्पताल एक स्पेश्लाइज्ड अस्पताल है औऱ आंखों के इलाज के लिए जाना जाता है । ये कोई जनरल अस्पताल नहीं था जहां हर तरह की बीमारी के इलाज के लिए लोग पहुंचते हैं।

अनुभव ही ऐसा रहा कि आपसे जरुर शेयर करना चाहूंगा। 

शुरुआत अस्पताल के मेन गेट से ही हुई। जहां दो गार्ड वर्दी में तैनात थे और एक असिस्टेंट सादी वर्दी में । एक गाड़ी मुझसे पहले ही अदर जा रही थी और दूसरी गाड़ी देखते ही उन्होंने दरवाज़ा करीब-करीब गाड़ी के बोनट पर ही बंद कर दिया और ऊपर से शिकायत भी दर्ज कराई कि मैं उन्हें गाड़ी के बोनट पर बिठा कर ले जाना चाहता हूं । अपने एक परिचित का हवाला देने पर ही अंदर जाने दिया गया नहीं तो वीज़ा ना होने के चलते मुझे शायद वापस लौटा दिया जाता ।

प्राइवेट अस्पताल भले ही पैसे लेकर ... लेकिन पार्किंग की व्यवस्था करा देते हैं लेकिन सभी सरकारी अस्पतालों में ऐसी किसी सुविधा की अपेक्षा आप ना करें तो बेहतर होगा । अगर अपनी गाड़ी से जा रहे हैं तो मेरी सलाह यही है कि गाड़ी उपयुक्त पार्किंग में ही खड़ी करें इधर-उधर नहीं। यदि आप ऐसा नहीं करते हैं तो अस्पताल के साथ-साथ आपको थाने के भी चक्कर काटने पड़ सकते हैं । यहां आपकी नज़रें हटीं और वहां आपकी गाड़ी। चोरी नहीं जनाब, एकदम खालिस सरकारी तरीके से सरकारी औऱ प्राइवेट स्टाफ मिलकर आपकी गाड़ी को एक अदद क्रेन की सहायता से ले जाते हैं ।

भले ही आपकी मजबूरी हो ...  "  लेकिण गलती तै गलती सै जनाब ... इब तै या तै थाणे तै अपणी गाडी छुड़ा लियो या फिर कोर्ट तै या फिर  ..." । जी हां ... यही तो होता है ना । 

खैर ... अपन एक बार ये सब बाहर होता देख चुके थे, जब मौके पर मौजूद जनाब ने मुझे भरोसा दिया कि वो मेरी गाड़ी को हाथ तक नहीं लगाएंगे लेकिन कोई दूसरी क्रेन वाला उनके इलाके में आकर गाड़ी ले जाए तो उस हालत में जनाब कुछ नहीं कर पाएंगे । और मेरे देखते ही देखते उन जनाब ने एक से दो चक्करों में वहां खड़ी सारी बाइक्स सुरक्षा के लिहाज़ से थाने में जमा करवा दी और एक गाड़ी के साथ तीसरे चक्कर में वो ऐसा ही कर रहे थे। मैने  कोशिश की औऱ गाड़ी अस्पताल के भीतर पार्क करने में कामयाब रहा ।

दरअसल जान-पहचान के एक सज्जन यहां कार्यरत हैं लिहाज़ा ज्यादा जद्दोजहद नहीं करनी पड़ती है , काम जहां रुकता है जान-पहचान काम करा देती है , नहीं तो मेरे परिवार वालों के मुताबिक ऐसे किसी अस्पताल की तरफ रुख करना भी मुझे पसंद नहीं। लेकिन ये पसंद हर किसी की तो नहीं हो सकती है । जरुरत और मजबूरी ... पसंद से नहीं ... बेवक्त आते-जाते हैं।

Image Ctsy - Google

बाहर से अस्पताल जितना साफ-सुथरा लगा ( जी हां ... सरकारी औऱ साफ-सुथरा) ... भीतर उतनी ही भीड़ और रेलमपेल थी।
त्योहारों के दिनों में आप शायद कभी नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली या फिर निज़ामुद्दीन रेलवे स्टेशन गए हों... वहां का हाल आपने देखा होगा ... दमघोंटू भीड़ ... कानों को बहरा कर देने वाला शोर ... बदबू ऐसी कि आप सांस लेने से परहेज़ करें।  कमोबेश यही हाल हर अस्पताल का है... सरकारी अस्पताल का है । होता है या फिर हो जाता है ।


आप अंदाज़ा ही नहीं लगा पाते हैं कि आखिर इतने लोग आते कहां से हैं ... चाहे वो सड़कें हों... रेलवे स्टेशन... बस अड्डे ... मेट्रो ... बसें ... बाज़ार या फिर बेशक अस्पताल ... आखिर इतने लोग ... वो भी इतनी तकलीफ में । ऐसे माहौल में उनका ठीक होना वाकई किसी चमत्कार से कम नहीं है। गलती डॉक्टरों की नहीं है वो भी इंसान हैं। काम का बोझ ही इतना ज्यादा हो कि कभी कभी वो झल्लाहट के रुप में दिखाई दे जाता है।

एक डॉक्टर ने एक मरीज़ को अपना नंबर दिया ताकि कभी जरुरत पड़ने पर वो फोन कर सके। और जितना उनके वार्तालाप से मैं समझ पाया ये एक दिन पहले की घटना थी और वो मरीज़ लगातार डॉक्टर साहब को फोन पर फोन किए जा रहा था। भले आदमी वो डॉक्टर है, आप खुशकिस्मत हैं कि आपको नंबर मिला ... बेजा इस्तेमाल तो ना करो। डॉक्टर साहब को परेशान तो ना करो। और डॉक्टर साहब मैने भी देखा था ... मरीज़ नासमझ था, आप तो समझदार हैं... भले आदमी क्या बातचीत का वो लहजा आपको या किसी भी डॉक्टर को शोभा देता है । 

ओपीडी ... हर अस्पताल की ओपीडी जैसी ही थी । भीड़ और शोर-शराबा ... मिन्नतें ... बदतमीजियां ... बदइंतजामी ... बेबसी ... अपने नाम की आवाज़ सुनने को आतुर कान और डॉक्टर की कुर्सी की तरफ टकटकी लगाकर देखती दसियों-बीसियों जोड़ी आंखें।

और इसी भीड़ के बीच एक बुजुर्ग आऱाम से खाना खा रहा था... भूख सब कुछ भुला देती है ।

 इसी शोर-शराबे के बीच एक महिला अपने पति के साथ बैठी थी, पति फर्श पर सो रहा था... शायद चेकअप के लिए ही आया था।

इसी चीख-चिल्लाहट के बीच कई जोड़ी बुजुर्ग आंखें चेहरे पर बिना किसी शिकायत के ... जहां जगह मिली वहीं बैठ कर ... अपना नंबर आने का इंतज़ार कर रही थी। उम्र के इस पड़ाव पर कोई अकेला था तो कोई किसी अपने के साथ ... चेहरा सब बयां कर देता है ।

इसी भीड़भाड़ के बीच एक मां अपने बच्चे के साथ चली आ रही था... मां आगे - आगे और बच्चा पीछे पीछे... बच्चा आंखों के अलावा शायद किसी और बीमारी से भी पीड़ित था... उसको उस तरह से चलते हुए देखना तकलीफदेह था... चलना शायद उससे भी ज्यादा ... लेकिन वो चल रहा था ... अपने पैरों पर ....ठीक होने की उम्मीद के साथ....

शायद ऐसी ही किसी उम्मीद के साथ हम लोग भी जी रहे हैं ...

साथ ही यहां उन सैकड़ों, हज़ारों ...लाखों डॉक्टर्स, नर्सिंग स्टाफ को भी नमन है जो तमाम उपलब्ध सुविधाओं के बीच अपने कर्तव्य का निर्वाह कर रहे हैं...

बेशक कई बार जिंदगी अपने ही तरीके से सभी को जीने का नज़रिया सिखाती है, जीने की राह दिखाती है , लेकिन जाने कितनी जिंदगियां ... इन्हीं अस्पतालों की बदौलत आज जि़ंदा हैं ... उनका वजूद कायम है। 
बेशक कई बार मायूसी होती है ... लेकिन उम्मीद ... उम्मीद हर मर्ज़ की दवा है ... और भरोसा हर दर्द का इलाज ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें