गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

अलविदा नन्हें फरिश्तों ...



सितारे भी रोए होंगे सारी रात...
दिन भर सूरज भी सिसकता रहा...
तारीख भी कोसती रही खुद को...
खुदा ने भी शायद...
इंसान बनाने से तौबा कर ली होगी...



' उन फरिश्तों की याद में जो सितारे बन गए '

क्या दर्द को लिखा जा सकता है... 
क्या आंसुओं को पढ़ा जा सकता है ... 
क्या आंसुओं की स्याही किसी के दर्द को लफ्ज़ दर लफ्ज़ कागज़ पर उतार सकती है...

जवाब मुझे भी नहीं सूझ रहा ... लेकिन जो हुआ वो दर्द से भी कहीं आगे की खौफनाक हकीकत बन गया ... 

जवाब नहीं हैं... सिर्फ सवाल हैं...




ऐसे कोई करता है क्या, छोटे बच्चों को कोई मारता है क्या

शब्द अपाहिज हैं... दर्द बहुत ज़्यादा

दिन भर तमाम टीवी चैनलों पर एक पिता का दर्द... देखता रहा, सुनता रहा, महसूस करता रहा। रूह कांप गई जब इस खौफनाक, दर्दनाक मंजर को टीवी स्क्रीन पर देखा... बार बार देखा।
ये दर्द... ये मातम सिर्फ एक परिवार का नहीं... सिर्फ उन तमाम परिवारों का नहीं जो ... जो...
एक... दो... तीन या चार नहीं... ये गिनती सौ के पार भी नहीं रुकी...
ये मातम सिर्फ पेशावर का नहीं है... ये मातम सिर्फ पाकिस्तान का नहीं है...
इंसानियत, धर्म , मजहब... पड़ोसी मुल्क, एशिया, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, यूरोप, अमेरिका, रूस ... ये मातम... ये दर्द सबका है...
बच्चे तो खुदा की नेमत होते हैं, भगवान का रूप होते हैं... फिर क्यों ...

याद नहीं पहली बार कब पढ़ा था...

घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए

... एक रोते हुए बच्चे को भी सुना, उसके ज़हन में अब बदला है, वो आतंकियों की नस्लें तबाह करने की बात कर रहा है। क्या देखा होगा उस मासूम ने... क्या कुछ नहीं सहा होगा... आखिर दरिंदगी का वो मंजर ... कैसे भूल पाएंगे ... वो बच्चे ... जिन्होंने अपने साथियों को ... मुर्दा जिस्मों में तब्दील होते हुए देखा। 
वो... जिनकी चहक से स्कूल गुलज़ार रहा करता था... गोलियों के शोर में उसी स्कूल में उनकी चीखें ... उनकी आवाज़ें ... खामोश हो गईं। 

दहशत... दर्द... खून... ज़ख्म... तकलीफ... खौफ............................................मौत, इन मासूमों का क्या हाल हुआ होगा , ये दुनिया की कोई ज़ुबां बयां नहीं कर सकती।

एक छोटा मासूम बच्चा... जिसे शायद इल्म भी नहीं होगा कि असल में क्या हुआ है एक सांस में हमले के बारे में बताता चला गया। बच्चे जिन्हें अंकल कह रहे थे... वो अंकल आतंकी थे, मासूम इससे भी अनजान थे।
आतंक के कई चेहरे इंसानियत के सामने बपर्दा हुए हैं, यकीन मानिए हर चेहरा और घिनौना ही साबित हुआ है... लेकिन... मासूम, निहत्थे बच्चों को निशाना बनाना ...हैवानियत भी क्या इतना गिर सकती है। क्या ऊपर से नीचे तक उन हैवानों में एक भी इंसान नहीं था, क्या उनके घरों में बच्चे नहीं थे... क्या उनको अपने बच्चों तक का ख्याल नहीं आया... मासूम बच्चों पर गोलियां बरसाते हुए क्या उनको अपने बच्चों के चेहरे याद नहीं आए होंगे।

वो माएं... जिन्होंने अपने अरमानों से पाले बच्चों को रोज़ की तरह स्कूल यूनिफॉर्म में स्कूल भेजा, वो स्कूल यूनिफॉर्म... कफन बन गई... उन माओं के सवालों का जवाब कौन देगा। क्या कोई भी जवाब उनकी औलाद की जगह ले सकता है। 
रोज़ की तरह ही सुबह उठना हुआ होगा... सुबह घर में धमाचौकड़ी मचाते... आधे-अधूरे नाश्ते को मुंह में ठूंसते... मां-बाप का पूरा प्यार समेटे स्कूल की तरफ भागे होंगे... किसी ने मां से टाई मांगी होगी, किसी ने अब्बू से स्वेटर... किसी भाई ने जूते पौंछकर पहनाए होंगे... तो किसी बहन ने जाते-जाते दुआओं के साथ बाल संवारे होंगे... जाने कितने घरों में ये सब उस तारीख के साथ चला गया। 

लाशें घर लौट कर नहीं आती...  वो बच्चे जो अपनी स्कूल की वर्दी पर एक दाग पसंद नहीं करते ... उनकी वर्दी का रंग लहू सरीखा हो गया। 

इस उम्र में बच्चे... बच्चे भी नहीं होते... वो तो एक ख्वाब होते हैं...
हर एक बच्चा एक ख्वाब होता है...
हर बच्चा अपने आप में एक मुकम्मल ख्वाब समेटे होता है...
ऐसे कितने ख्वाब आज इंसानियत से छीन लिए गए।

ऐसे कोई करता है क्या, छोटे बच्चों को कोई मारता है क्या


ये सवाल सिर्फ उन शख्स का नहीं है, जिन्होंने अपना बच्चा खोया है...

ये सवाल हर उस मासूम का है जिसे हमने आज खो दिया...

ये सवाल हर उस ख्वाब का है ... 
जो वो मासूम पूरा होने से पहले ही अपने साथ लिए जा रहे हैं... 

दूर ... बहुत दूर... 
वापिस उसी खुदा के पास... 

जिसने उन्हें ज़िंदगी देने के साथ ... 
एक ख्वाब दिया था... एक मुकम्मल ख्वाब... 

एक मुकम्मल ज़िंदगी के साथ... 
एक मुकम्मल ज़िंदगी जीने के लिए... 

*** अब वो शायद सितारे बन गए हैं... 
ऊपर उसी आसमान में ... 
जो चुपचाप सब देखता रहा... सहता रहा... सिसकता रहा... 
प्लीज़... उन्हें दुनिया का वो आसमान कभी मत देना जिसके नीचे ऐसे सिरफिरे वहशी पनाह लेते हैं... 
जहां मजहब के नाम पर ऐसे गुनाह होते हैं...
ऐसी दुनिया और ऐसे आसमान से उन्हें दूर रखना ईश्वर... 

अलविदा नन्हें फरिश्तों ...