बुधवार, 8 जुलाई 2015

एक दिन की ज़िंदगी ...



सिर्फ एक दिन की ज़िंदगी...

एक दिन की ज़िंदगी में ही उसने ज़िंदगी की हकीकत समझ ली।

आंखें खोलने से पहले ही उसे क्या-क्या नहीं देखना पड़ा।

उसे ज़िंदा रखने की कोशिश में मां-बाप को पल-पल मरते देखा।

उसे ज़िंदा रखने की कीमत लगी, जो उसके मां-बाप नहीं दे पाए।

मालूम हुआ एक अस्पताल ने नवजात की ज़िंदगी की एक दिन की कीमत लगाई 10,000 रुपए। अस्पताल के लिए शायद कोई बहुत बड़ी रकम नहीं थी, लेकिन उस मासूम की ज़िंदगी इस रकम के सामने बहुत मामूली थी। मां ने महीनों उसे कोख में रखा, पिता ने भी उतना ही इंतज़ार किया...
इंतज़ार के उन लम्हों में सांसों के हिसाब से उन्होंने अपने आने वाले बच्चे के लिए सपने भी देखे, लेकिन कोरे सपनों से क्या होता है... सपने नींद में ही अच्छे लगते है, जागती आंखों के सपनों के लिए इस दुनिया में पैसों की जरूरत होती है।
उनकी जेब में पैसे नहीं थे लेकिन गोद में मन्नतों से मांगा हुआ मासूम  ज़िंदगी की बाट जोह रहा था, वो जो उनके सहारे इस दुनिया में आया था... अपनी औलाद को अपनी आंखों के सामने वो मरता हुआ कैसे देखते।
लेकिन उस निजी अस्पताल के लोग भी आखिर इंसान थे, पत्थर-दिल नहीं...
बेशक पैसा देने में असमर्थ इस परिवार के प्री-मैच्योर बच्चे को ज़िंदा रखने की उन्होंने कीमत लगाई हो...
बेशक एक दिन के उस नवजात की ज़िंदगी और उसके बिलखते मां-बाप के आंसुओं के आगे उनका दिल नहीं पसीजा...
लेकिन अस्पताल प्रशासन और डॉक्टर हद दर्जे तक आशावादी और भाग्यवादी निकले। पैसे नहीं हैं पास में तो क्या हुआ, ज़िंदा रखने की कीमत नहीं चुका सकते तो क्या हुआ, उन्होंने उसे ज़िंदा रखने की कोशिशों में कोई कमी नहीं रखी, एक अदद एंबुलेंस को बुला कर उन्होंने उस नवजात को परिवार के साथ रवाना कर दिया, दिल्ली के अस्पतालों की खाक छानने के लिए। उन्हें आशा थी कि ये बच्चा अपने भाग्य के सहारे जि़ंदा रहेगा।
प्री-मैच्योर बच्चा भाग्य की इसी डोर के सहारे फिर दिल्ली के जाने-माने अस्पतालों के चक्कर काटने लगा। सबसे पहले उसे कलावती अस्पताल ले जाया गया, जहां उसके भाग्य में इलाज होना नहीं लिखा था, लिहाजा वहां उसका इलाज नहीं हुआ। इसके बाद कैट्स एंबुलेंस उस नवजात को लेकर आरएमएल अस्पताल पहुंची। लेकिन यहां भी इलाज उसके नसीब में नहीं था। इलाज के नाम पर यहां भी निराशा हाथ लगी, एक दिन की ज़िंदगी पूरी कोशिश कर रही थी... एक मुकम्मल ज़िंदगी हो जाने के लिए।
आरएमएल के बाद एंबुलेंस दिल्ली की भीड़भाड़ को चीरती हुई एलएनजेपी अस्पताल पहुंची, पहले यहां भी इलाज के नाम पर इंतज़ार मिला और ये इंतज़ार फिर लंबा होता गया... और एक कभी ना खत्म होने वाले इंतज़ार में बदल गया।
एक दिन की ज़िदगी अपने हिस्से की ज़िंदगी जी चुकी थी। राजधानी के अस्पताल उसे इस दुनिया में नहीं रोक पाए। एक अस्पताल ने उसकी जिंदगी की कीमत हैसियत से ज़्यादा लगा दी। तो दूसरे अस्पताल तक पहुंचते-पहुंचते वो एक ' मैटर ' बन गया, जिसकी जांच अस्पताल प्रशासन अब कर रहा है और पता लगते ही हमें बता दिया जाएगा। बच्चे को शायद सॉरी कह दिया जाएगा, क्योंकि अब अस्पताल इस मैटर को उसे समझा नहीं पाएगा।
एक दिन की ज़िंदगी के अपने आखिरी पड़ाव तक जाते -जाते नवजात एक ' पेशेंट ' बन चुका था, और वो गलत गेट पर इलाज का इंतज़ार कर रहा था, जहां इलाज के इंतज़ार में उसके हिस्से की सांसें खत्म होते-होते उसका साथ छोड़ गईं...
एक दिन की ज़िंदगी ...जि़ंदगी को कई सबक सिखा गई। पहले दो अस्पताल जहां उस नवजात को ले जाया गया वो केंद्र सरकार के अंतर्गत आते हैं, फिर उस नवजात ने जहां आखिरी सांस ली...वो अस्पताल दिल्ली सरकार के अधीन है।
ये वैसे तो सार्वजनिक जानकारी का हिस्सा है...
लेकिन इलाज के लिए जाते समय कौन ये सोचता है कि कौन सा अस्पताल किस सरकार के अंतर्गत आता है।
पर यकीन मानिए ये एक बहुत जरूरी तथ्य है जो आज मुझे टेलीविज़न के माध्यम से पता चला।
मगर अफसोस ये जानकारी उस नवजात के पास नहीं थी... 

2 टिप्‍पणियां:

  1. nice post Hemant... helping me get Hindi practice for sure :)
    Thanks for sharing... Cheers, Archana - www.drishti.co

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  2. शुक्रिया Archana ... हिदी हमारी अपनी भाषा है, जितना लिखा-पढ़ा जाए...कम है :)

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