मंगलवार, 31 मई 2016

कौन है असली ' विलेन '

हम लोग दिल्ली में रहते हैं, देश की राजधानी दिल्ली में। साल भर हम तरह-तरह की वर्षगांठ और खुशफहमियां मनाते हैं। देश की राजधानी, देश का आईना भी है लिहाज़ा देश भर पर चर्चा, परिचर्चा औऱ खर्चा सब यहां होता है... और फिर ये आईना एक दिन एक ऐसी सूरत आपको दिखा देता है कि आप आईने से नफरत करने लगते हैं... लेकिन उस सूरत और सीरत से नहीं । फिर वक्त के साथ-साथ वो तस्वीर धुंधली होती जाती है... धुंधली होते होते उसका वजूद खत्म हो जाता है। न कोई सीख...न कोई सबक, हम मान लेते हैं माहौल ठीक है और एक दिन फिर से आपका ये भ्रम टूट जाता है ... आईना आपको एक नई सूरत दिखाता है, आप इस सूरत से और भी ज़्यादा नफरत करते हैं... रस्म अदायगी के तौर पर आप कड़े शब्दों में इसकी निंदा करते हैं, फिर दिल और पक्का कर उसकी भर्त्सना करते हैं, कुछ जुलूस ...कुछ बैठकें... कुछ दिशानिर्देश, जो कुछ दिन बाद फिर से दिशाहीन हो जाते हैं।

 राजधानी दिल्ली के पॉश वसंतकुंज इलाके में कांंगो के एक युवक की पीट-पीटकर हत्या कर दी जाती है। वजह ऑटोरिक्शा में बैठने को लेकर हुआ विवाद।
 पुलिस के मुताबिक ये नस्लीय आधार पर हुआ हमला नहीं है, ये कोई Hate crime नहीं है, ऑटो में बैठने को लेकर झगड़ा हुआ जिसके बाद वीभत्स तरीके से इस युवक की हत्या कर दी गई। इस घटना पर विश्व भर से तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिली। राजधानी दिल्ली में सभी अफ्रीकी देशों के राजदूत ने अपना विरोध दर्ज कराया। एक तरफ अफ्रीका दिवस का आयोजन और दूसरी तरफ इस तरह का दुर्भाग्यपूर्ण घटनाक्रम। विरोधस्वरुप अफ्रीकी देशों के राजदूतों ने इस आयोजन में शामिल न होने का निर्णय लिया, जिसे बाद में बहुत समझाने-बुझाने के बाद उन्होंने वापस ले लिया।
वस्तुत: अपराध से ज़्यादा अपराध के पीछे की मानसिकता आपको सोचने पर विवश करती है।
इस घटना के कई पहलू हैं... आपराधिक, सामाजिक, कूटनीतिक, आर्थिक... और इन तमाम पहलुओं की अलग-अलग तरीके से प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है।
अखबारों में...न्यूज़ चैनल्स में इस खबर के करीब-करीब हर पहलू को खंगाल लिया गया है, लेकिन माहौल में एक वैचारिक अवरोध जस का तस बरकरार है।
आप prejudices और bias के आधार पर किसी को कटघरे में नहीं खड़ा कर सकते हैं। अगर कोई एक व्यक्ति किसी अपराध में संलिप्त पाया जाता है तो उस देश, शहर, समाज, धर्म, जाति या नस्ल के सभी लोगों को अपराधी करार नहीं दे सकते। हर व्यक्ति स्वयं अपने फैसलों के लिए उत्तरदायी होता है। यदि कोई अफ्रीकी नागरिक किसी अपराध में संलिप्त पाया गया है तो सभी अफ्रीकी नागरिक इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं। आप सभी को संदेह के दायरे में नहीं रख सकते हैं। आप सिर्फ इस आधार पर सभी से भेदभाव पूर्ण व्यवहार नहीं कर सकते हैं।
ऐसे अपराध संकुचित सोच और आपराधिक प्रवृति  का ही नतीजा हो सकते हैं। लेकिन अपराधी ये भूल जाते हैं कि इसके कितने दूरगामी परिणाम देखने को मिल सकते हैं। और अगर इतनी समझ इतना विवेक उनमें पहले ही होता तो ऐसी नौबत शायद कभी नहीं आती।
आप अखबार में छपी रिपोर्ट के इस हिस्से को पढ़िए। इस तरह के अपराध का ये भी एक दुर्भाग्यपूर्ण पहलू है। लोगों से...समाज से ...व्यवस्था से आपका भरोसा उठने लगता है और एक लोकतांत्रिक प्रणाली में ये कोई बहुत अच्छा संकेत नहीं है। आप सिहर जाते हैं जब आपको ऐसी भावनाओं से अवगत कराया जाता है लेकिन कहीं न कहीं इसके लिए आप भी जिम्मेदार हैं , क्योंकि जब आपको इसका हरसंभव विरोध करना चाहिए था उस वक्त आप बारिशों में भीगा वीकेंड मनाने में मशगूल थे। आपके पास तमाम व्यस्तताएं थीं लेकिन फिर आप इस सब के बारे में सोचते भी क्यों... इससे आपका क्या सरोकार। आप यहां जो करते हैं उसकी प्रतिक्रिया आपको जरूर मिलती है। हिंसक घटना की अहिंसक प्रतिक्रियाएं अमूमन नहीं होती, ये खुद को ही धोखा देने जैसी बात हुई।

अतिथि देवो भव: । आप करोड़ों-अरबों रुपए विज्ञापन पर फूंक दीजिए, लेकिन सालों की मेहनत से जो छवि आप बनाते हैं... अर्जित करते हैं, ऐसी घटनाएं एक पल में उस पर सवालिया निशान लगा देती है। सांप निकल जाने के बाद आप लकीर पीटते रहिए, लेकिन सार्थकता सही समय पर उठाए गए सही कदम की ही होती है। लोगों में भरोसे का कायम रहना जरूरी है, एक व्यवस्था में भरोसा रहना जरुरी है। लेकिन आप सिर्फ इस सोच के साथ नहीं चल सकते कि किसी अन्य देश के नागरिक को मिली सुरक्षा की गारंटी उस देश में आपके अपने नागरिक के अधिकारों की रक्षा समान है, ये कोई बदले की कार्रवाई नहीं है, ये किसी का अधिकार है तो आपका कर्तव्य भी। 
मैनें कहीं किसी अखबार में डैमेज कंट्रोल शब्द को भी छपा पाया। किसी भी समाज के लिए डैमेज कंट्रोल एक बहुत ही वाहियात अवधारणा है, पहली कोशिश उस तथाकथित 'डैमेज' को होने ही न देने की होनी चाहिए। लेकिन हम इंतज़ार करते हैं, हमें मुद्दों, मसलों और मामलों की गंभीरता से फर्क नहीं पड़ता है, हमें सिर्फ उन चीज़ों से फर्क पड़ता है जिनसे सिर्फ हमें फर्क पड़ता है। 
हर विचारधारा को आत्मसात कर लेना, हर व्यक्तित्व को स्वीकार कर लेना, हर सोच को साकार होने का अवसर देना, हर जीव को जीने का अधिकार देना...हमारे समाज में सहिष्णुता के असल मायने यही थे, पिछले काफी अरसे से सहूलियत के हिसाब से सहिष्णुता और असहिष्णुता का जमकर दुरुपयोग चला आ रहा है लेकिन किसी की जान जाने से ज़्यादा असहिष्णुता किसी समाज के लिए क्या हो सकती है। ये अक्षम्य है ...

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