सोमवार, 20 जून 2016

कागज़ पर छपे सपने




वो सपने बेचते हैं…
कागज़ पर छपे हुए…
हिंदी-अंग्रेजी… 
हार्ड बाउंड या पेपरबैक…
ज़िंदगी का ब्लैक एंड व्हाइट
एक रंगीन सच…
किसी की सोच…
किसी के सपने…
शब्दों में लिपटे…
ख्वाब… पराए और अपने…
सपनों का बाज़ार…
बहुत जरूरी है…
बेचने और खरीदने वाले के साथ…
ये सपने देखने वाले को भी रोटी देता है…
क्योंकि खाली पेट के सपने…
बौद्धिक बदहज़मी का सबब बनते हैं...
जैसे
कागज़ पर छपे सपने...
जल्दी फीके पड़ जाते हैं
कागज़ पर छपे नोटों से...
वो अक्सर हार जाते हैं...
उनको ज़िंदा रखना होगा...
किसी क्रांति के लिए नहीं...
अपने खुद के वजूद के लिए...
ज़िंदा रहने के लिए नोटों की ही नहीं...
सपनों की भी जरूरत होती है . . .
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हेमन्त वशिष्ठ

शुक्रवार, 17 जून 2016

सीएनजी व्यथा-कथा 01

इंद्रप्रस्थ गैस लिमिटेड के मुताबिक साल 2016 के पहले चार महीनों में रिकॉर्ड 72 नए सीएनजी स्टेशन स्थापित किए गए हैं। इनमें से 51 राजधानी दिल्ली में जबकि 21 एनसीआर इलाके में हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार दिल्ली और एनसीआर इलाके में 104 नए सीएनजी स्टेशनों को खोला जाना था। संबंधित एजेंसियों की मानें तो कार्य ...प्रगति पर है।
लेकिन इतने नए सीएनजी स्टेशनों के अस्तित्व में आ जाने के बावजूद सीएनजी स्टेशनों पर लगने वाली गाड़ियों की कतारें लगातार लंबी होती जा रही है। व्यस्त एवं अति-व्यस्त सड़कों पर लगने वाले जाम के इतर कई जगह इन्हीं बेतरतीब कतारों से ट्रैफिक लगातार बाधित होता है। शहर में सीएनजी गाड़ियों की संख्या में एकदम से बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है, वजह वाज़िब है लेकिन मौजूदा सीएनजी स्टेशन इतनी बड़ी संख्या में गाड़ियों को एक तय वक्त के भीतर संभाल पाने में लगातार नाकाफी साबित हो रहे हैं।
सीएनजी से वाहन चलाना सस्ता पड़ता है, प्रदूषण भी कम लेकिन सीएनजी भरवाने में भी आपको रिकॉर्ड वक्त लगाना पड़ रहा है। सुबह के 6 बजे हों, दोपहर के 2 बजे हों या फिर रात के 12 बजे का वक्त हो... नज़ारा हर वक्त हर जगह करीब-करीब एक सा ही रहता है।
उपर्युक्त जानकारी (आंकड़े) खबरों से मिली है...
ये अनुभव मेरा व्यक्तिगत है...
लेकिन ये वक्त हम सभी का है जो हम इस शहर में बनती नई-नई कतारों में ज़ाया कर रहे हैं।
(विस्तृत अनुभव के संकलन का कार्य प्रगति पर है)

रविवार, 12 जून 2016

Right To Refuse Service - कितना सही कितना ग़लत

बहुत कुछ किसी फिल्म सरीखा ही था, जहां एक सबल महिला किसी निर्बल (जरूरतमंद) की मदद करना चाहते हुए भी नहीं कर पा रही थी, वजह वो सिस्टम जहां पर वो सबल महिला तो स्वीकार्य है लेकिन वो निर्बल नहीं। मामले को समझने के लिए पहले इस तस्वीर को ज़रा को गौर से देखिए...
पहली नज़र में कुछ भी अटपटा नहीं लगता है, लेकिन फिर ज़रा ध्यान से देखने पर आपकी नज़र दरवाज़े पर प्रदर्शित इस संदेश की तरफ जाती है, हो सकता है बहुत सी जगहों पर Management की तरफ से इस संदेश को चस्पां किया जाता हो, और होने को तो ये भी हो सकता है कि अनेकों बार यहां जाने के बावजूद पहली बार ही इस पर मेरी नज़र पड़ी हो। कानूनी या गैरकानूनी मुझे नहीं पता लेकिन आंखों को खटका तो तस्वीर खींच ली। लेकिन इस तस्वीर को खींचना और पास ही हो रहे एक और घटना क्रम की timing एक सी होने पर बहुत कुछ एक दूसरे में गड्डमड्ड होता चला गया।
ये समूचा घटनाक्रम देश की राजधानी के दिल कनॉट प्लेस के जनपथ का है।

 अब आप इन दोनों तस्वीरों को देखिए। ये भीड़ औऱ जमावड़ा यूं ही नहीं है। ये वही महिला है इन तस्वीरों में जो कैमरे पर बाईट देती नज़र आ रही हैं। भीड़-भाड़ और शोर-शराबे में जितना सुन पाया और जितना समझ पाया वो ये रहा कि ये महिला अपने साथ कुछ जरूरतमंद बच्चों को एक रेस्त्रां में ले जाना चाहती थी और management ने ऐसा नहीं होने दिया ... उस रेस्त्रा़ं के कर्मचारियों को वो सबल महिला तो स्वीकार्य थी लेकिन  उस वक्त के उनके वो साथी नहीं, जिन्हें वो अपने साथ ले जाना चाहती थीं। महिला के मुताबिक उसका ऑर्डर पैक कराने का अनुरोध भी ठुकरा दिया गया। बच्चों के कपड़े गंदे होने का तर्क देकर उन्हें सर्व करने से मना कर दिया गया।
आखिर अतिथि देवो भव: आप जगह - जगह इस्तेमाल में लाने लगे तो एड फिल्म्स की क्या जरूरत रह जाएगी, कस्टमर भगवान होता है ये मोहल्ले की किराने की दुकान पर ही अच्छा लगता है।
लेकिन इस महिला को क्या मतलब इन व्यावहारिक बातों से, देहरादून की रहने वाली ये महिला सोनाली अपने पति का जन्मदिन मनाना चाहती थी औऱ इन जरूरतमंद बच्चों के साथ अपनी खुशिया बांटना चाहती थी, लेकिन संभ्रांत और अभिजात्य वर्ग special इस रेस्त्रां के स्टाफ को ये कतई मंजूर नहीं था।  वैसे भी संवेदनशीलता औऱ मानवता अब कोई डिश तो है नहीं जिसका मेन्यू में होना अनिवार्य है। आश्चर्य की बात है कि ये मानसिकता अभी तक लोगों के ज़हन में बरकरार है, इससे आज़ादी कब मिलेगी ये कोई नहीं बता सकता, क्योंकि ये जरूरतमंद आपके वोटबैंक नहीं हैं जिनको ना चाहते हुए भी आज़ादी का झुनझुना थमा दिया जाए और धकेल दिया जाए क्रांति के पथ पर...एक अदद पेट और उस पेट को जलाती भूख के साथ।

हालांकि रेस्त्रां प्रबंधन की तरफ से भी बेहद वाजिब और लाज़मी तर्क दिए गए। उनके मुताबिक बच्चों का व्यवहार ठीक नहीं था और वो तमाशा कर रहे थे। बिल्कुल सही बात है, धंधा अपनी जगह पर है और इंसानियत अपनी जगह पर, आप दोनों को एक साथ कतई नहीं रख सकते। इंसान होने की कीमत अपनी नौकरी देकर कौन चुकाना चाहेगा इस कलियुग में, इसलिए सब होता है, सब जायज़ है... आप कब तक हक़ की लड़ाई लड़ते रहेंगे, अपने लिए ...औरों के लिए... समाज के लिए, यहां हर आदमी अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहा है, अपने हिस्से की दुनिया पाने के लिए।
और असल में सामंती विचारधारा किसी विरासत की मोहताज़ तो है नहीं... ये तो आपके रसूख और रुतबे के साथ भी फ्री में मिलती है। जहां ये ताकत औऱ सत्ता का नशा लोगों के सिर पर चढ़ता है लोग भेदभाव करने में अंग्रेज़ों को भी पीछे छोड़ देते हैं।

खैर, इस सब के बीच दिल्ली सरकार का कहना है कि यदि इस मामले में कोई दोषी पाया जाता है तो कार्रवाई अवश्य की जाएगी। उम्मीद है कार्रवाई जल्द होगी...

शनिवार शाम यूं भी जनपथ पर काफी चहल-पहल होती है। लिहाज़ा भीड़ जुटने में क्या वक्त लगता है। पहली नज़र  में तो यूं लगा जैसे कोई महिला यूं ही किसी धरने पर बैठी हुई है लेकिन कुछ ही देर में तमाम चैनल्स के कैमरापर्सन और रिपोर्टर्स घटनास्थल की तरफ दौड़ते नजर आए। इस बीच एक पीसीआर वैन भी वहां मौजूद थी और एक पुलिसकर्मी को समूचे घटनाक्रम को कैमरे में कैद करते हुए भी देखा गया। एक तरफ शॉट्स बनाए जा रहे थे तो दूसरी तरफ एक रिपोर्टर पीटीसी करने में व्यस्त... एकाध वॉक-थ्रू भी निपटा दिया गया होगा वहीं खड़े-खड़े। हमारे देश में तमाशबीन सब्ज़ी मंडी में आलू की तरह मिलते हैं, लिहाज़ा हर तरह के आलू वहीं मौजूद थे। उनमें से एक आलू मैं भी था... और मुझे कुछ दिन पहले की एक और खबर आलू चाट सरीखी याद आ गई... पता नहीं वहां क्या माहौल है अब... तस्वीरों के माध्यम से एक खबर शेयर कर रहा हूं... मेरे जैसे सभी आलुओं के लिए... मुझे गर्व है अपने आलू होने पर ...

                                                                

क्या आप भी एक आलू बनना चाहते हैं। अगर आपका जवाब हां में है तो आपको कुछ भी करने की जरूरत नहीं। लेकिन अगर आपका जवाब ना में है तो जनाब आप अपना जवाब बदल लीजिए... आलू होना सबके बस की बात नहीं ... लेकिन सबसे सहज आलू होना ही है। जीवन में सहजता को लाइए... आप एक आदर्श आलू साबित होंगे। 

बुधवार, 8 जून 2016

' उड़ता पंजाब ' के मायने


अब ये वाकई समझ से बाहर होता जा रहा है कि लोग आखिरकार सेंसर बोर्ड के पीछे हाथ-पांव-मुंह धोकर क्यों पड़े हैं। ' उड़ता पंजाब ' अब ये क्या नाम हुआ बताईए... जनाब जिस क्रिया कलाप के उपरांत उठना भी बमुश्किल होता है, आप वहां उड़ने की बातें कर रहे हैं (यही कुछ होगा ना आपकी फिल्म में)... ये तो Newton के सिद्धांतों के भी खिलाफ है। आप प्रकृति के विपरीत कैसे जा सकते हैं। Creative freedom के नाम पर कुछ भी परोस दिया जाएगा क्या ? 
फिर चुनाव भी जल्द होने वाले हैं, ऐसे में पंजाब को कैसे उड़ने दिया जा सकता है। चुनावों के बहुत दूरगामी परिणाम होते हैं जी, हैं जी... हां जी !!! ... आप समझते ही नहीं। और फिर देखिए फिल्म के नाम में जब दिल्ली हुआ तो ...'चलो दिल्ली' , उड़ो दिल्ली क्यों नहीं। गैंग्स ऑफ वासेपुर... मेरठिया गैंगस्टर, ज़िला ग़ाज़ियाबाद... मद्रास कैफे, बॉंबे वेल्वेट... वगैरह-वगैरह। Go Goa Gone भी इसी तरह बर्दाश्त की गई। गोवा में क्या वही सब होता है, लेकिन आप लोग सुधरेंगे नहीं।
 उड़ता पंजाब ... मतलब कुछ भी !!! नाम उड़ता गुलाब रख दो भाई... उड़ता जुराब रख दो। फिर जनाब शेक्सपीयर साहब भी तो कह गए थे जी ... what's in a name. "A rose by any other name would smell as sweet". अब आप क्या शेक्सपीयर से भी बड़े भारी क्रिएटिव हो गए हैं।
खैर, शेक्सपीयर तो विदेशी मामला हुआ, बात एक जांचे-परखे देसी नुस्खे की... कबूतर और बिल्ली का किस्सा तो आप सभी जानते हैं, कबूतर बिल्ली को देखकर अपनी आंखें बंद कर लेता है और मान लेता है बिल्ली अब नहीं है, वो चली गई है... और बेशक ये कलियुग है लेकिन आप यकीन मानिए... ये सिद्ध टोटका आज भी उतना ही प्रभावशाली है।
आप क्या कीजिए, उड़ता पंजाब फिल्म के नाम में से पंजाब हटा दीजिए और यकीन मानिए, जैसे ही आप ऐसा करते हैं, ये फिल्म एकदम झूठी हो जाएगी जनाब... ड्रग्स-फ्रग्स फलाणा-ढिकणा सब समस्याओं से तुरंत सबको छुटकारा मिल जाएगा... सब एकदम छूमंतर !!!

फिर समझो ना यार ...फिल्म जरूरी है या समाज ...
और ऐसी क्या क्रांति करना चाहते हो भाई, जो उड़ाने से ही हो सकती है। 

मान जाओ बुद्धिजीवी... समझो... इतनी कांट-छांट के बाद वैसे भी कौन उड़ सकता है।

रविवार, 5 जून 2016

विदेशी एप्पल बनाम स्वदेशी चप्पल




'एप्पल की चप्पल' ...
एक तरफ iPhone 8 को लेकर खबरों का बाज़ार गर्म है तो वहीं कुछ प्रतिभाशाली लोगों ने उसे खरीदने वालों के लिए फुटवियर बनाने की शुरुआत कर दी है। मतलब साफ है, ऊपर से नीचे तक ...अंदर से बाहर तक ...हर जगह एप्पल ही एप्पल... और इसके लिए एकदम ज़मीनी स्तर पर काम शुरु हो चुका है।
और हर स्तर पर ढेरों सरकारी एवं गैर-सरकारी योजनाएं हैं, प्रोत्साहन हैं ... चितेरे तैयार हैं समूची व्यवस्था को अपना बना लेने के लिए। और बनने-बनाने के इस खेल की शुरुआत की गई प्रोद्यौगिकी के इस शाहकार के नए अवतार के साथ। 
दरअसल कई लोगों ने पहले-पहल आई-फोन से ही इस महत्वाकांक्षी परियोजना का शुभारंभ किया था लेकिन हमारा तंत्र ऐसे उद्यमियों के मन की बात नहीं जान सका, इसके विपरीत कि उनके हुनर को तराशा जाए, उसे बढ़ावा दिया जाए... उनकी दुकानों को निशाना बनाया गया, उनके गोदामों पर छापे मारे गए, उन्हें गिरफ्तार कर सरेआम ज़लील किया गया। उनके गोरखधंधे की गाढ़ी काली कमाई को पूरी दुनिया के सामने बेपर्दा कर दिया गया। उन लोगों का गुनाह सिर्फ इतना था कि वो सस्ते दामों पर लोगों को एप्पल के महंगे फोन मुहैया करा रहे थे। हालांकि लोगों की हैसियत को टटोलते हुए वो कई बार एप्पल के ही मार्केट रेट पर फोन मुहैया कराते थे, जिससे वो हीन-भावना के कतई शिकार न हों। एप्पल के हाथ यदि इनकी तकनीक मिल गई होती तो शायद भारत में आई-फोन का आगमन अंग्रेज़ों के साथ ही हो गया होता और हमने उनके तमाम एप्पल खरीदकर उन्हें हाथों-हाथ लौटती डाक और डोलते जहाज़ से वापिस रवाना कर दिया होता। 
लेकिन इतिहास को शायद इसी रूप में हमारे सामने आना था। इन जुझारू कुटीर उद्यमियों को बिना किसी नोटिस के कई दिनों की निगरानी के बाद धर-दबोचा गया और देसी जुगाड़ तकनीक को दरकिनार करते हुए हमारे बाज़ार ने एक बार फिर विदेशी ताकतों के आगे घुटने टेक दिए।
लिहाज़ा तकनीकी रूप से अत्यंत सक्षम और धंधे के हिसाब से बेहद घाघ इन समाजसेवियों के हश्र को देखते हुए बाकी अन्य चिंतक विचारक तुरंत दूसरे अन्य विकल्प तलाशते हुए फिर से समाजसेवा में तल्लीन हो गए। सभी ने सफलता का बेहद साधारण लेकिन परिश्रम वाला पथ अपनाते हुए, एक दूसरे नाम के साथ खुद को रजिस्टर कर, एक दूसरी पहचान को अपनाया और वो फिर से मैदान में कूद पड़े... एक नए नाम...एक नई पहचान... एक नए काम के साथ। ये तरीका ज़िंदगी में हर जगह काम करता है, बिल्कुल शाहरुख खान की फिल्मों की तरह। आप बस अपना सपना देखिए और सारी कायनात (सिस्टम) आपकी मदद को आमादा हो जाती है, लेकिन एक अदद कीमत के साथ। सपने देखने की भी एक कीमत होती है जनाब और उनके पूरे होने की कीमत अलग से अदा करनी पड़ती है। 
कई सालों पहले फोन का ये सपना हमारे देश में आना शुरु हुआ... फिर धीरे-धीरे विज्ञापन बाज़ार ने हर सपना आपके फोन से ही जोड़ दिया...
ज़र...जोरू औऱ ज़मीन से शुरु हुए सपने जन्नत तक जा पहुंचे ... सब कुछ बस एक फोन की बदौलत। ज़िंदगी आगे बढ़ने का नाम है लिहाज़ा जब फोन के सपने राशन कार्ड में लिख दिए गए तो देखते ही देखते एक पूरी की पूरी जेनरेशन ने आई-फोन के सपने पर ही अपनी ज़िंदगी जी ली।
वस्तुत: आई-फोन एक फोन से भी कहीं आगे बढ़कर एक जीवनशैली बन चुका है। ये आपकी सोच पर इस कदर हावी हो चुका है कि आप फोन भले ही किसी भी कंपनी का रखें लेकिन रिंग-टोन उसमें एप्पल की ही सुनाई देती है। 
लेकिन यहां मकसद एप्पल नहीं ... कुछ रणबांकुरों की सोच का वो अनूठा शाहकार है जो यकीनन उन्हें एक दिन स्टीव जॉब्स के समकक्ष लाकर खड़ा कर देगा। कुछ बाएं हाथ से काम करने वाले मित्रों का मानना है कि इस अत्यंत मानवापयोगी आविष्कार की उत्पत्ति पड़ोसी मित्र देश चीन की उदारवादी नीतियों की ही देन है। दरअसल वहां का खुला बाज़ार, प्रदूषण रहित ऑड-ईवन नीतियां औऱ सौम्यवादी प्रोत्साहन इस तरह के उत्पादन के लिए बिल्कुल मुफीद है। चप्पल से लेकर चिकनकारी तक... सब कुछ एप्पल मार्का एकदम संभव है, जहां चैंपियन एथलीट तक फैक्ट्री में तैयार किए जाते हैं वहां छोटे-मोटे उत्पादों की क्या बिसात। 
सिर्फ एक request है आप सभी से... जहां से भी इन हुनरमंद उद्यमियों की जानकारी मिले, इनसे इनकी प्रेरणा के बारे में जरूर पूछें कि आखिर उन्हें ये क्या सूझा। तब तक इन चप्पलों को घिसें, घिसते रहें ...एक अदद i-फोन एक दिन जरूर प्रकट होगा...

(हर सपना सच होगा) सनद रहे ...


हर हाथ में एप्पल
हर पांव में चप्पल...






( उपर्युक्त पोस्ट का किसी भी फोन या फोन कंपनी से कोई लेना-देना नहीं है। कृपया इसे संदर्भित साक्ष्यों... तथ्यात्मक एवं तार्किकता की कसौटी पर ना परखा जाए )