बुझते कशों के बीच...
याद आई वो हर बात...
जो तुमने हर कश के बीच...
कही नहीं पर ...सही थी...
हां...तुम नहीं थी... पर तुम सही थी...
जब दम घोंटने लगे अपने ही विचार...
और घुटनों के बीच सिर दिए...
जागते रहे सारी रात...
खुद में ही सिमटे... सिकुड़े से ...
सिसकते रहे... हर बरसात...
तुम्हारा दर्द...तुम्हारी शिकायतें...
सब यूहीं अनकही थी...
हां...तुम नहीं थी... पर तुम सही थी...
तेरे मन की सिलवटें...
जाने कब मेरी हथेली पर रेखाएं बन चलीं थी...
वो रेखाएं भी छुपाकर...
तुम अक्सर साथ चली थी...
हां...तुम नहीं थी... पर तुम सही थी...
पैबंद सरीखा वजूद कुछ तो संवरे...
तेरी कशिश ने कोशिश भी बहुत की थी...
हार मान ली हसरतों ने जब...
कबाड़ सरीखी जिंदगी हो चली थी...
हां...तुम नहीं थी... पर तुम सही थी...
याद है ...
वो पहली मुलाकात की मुस्कुराहट...
सुबह जागने से पहले तुम...
यूंही मुस्कुराती मिली थी...
हम जागे तब तक तुम जा चुकी थी...
फिर से मिलने की उम्मीद... बाकी अभी थी...
हां...तुम नहीं थी... पर तुम सही थी...
बहुत उम्दा
जवाब देंहटाएंजन्माष्टमी की हार्दिक बधाई.
जवाब देंहटाएं( Treasurer-S. T. )
शानदार.. किसी का दर्द आपकी कलम के ज़रिए बाहर तो आया...
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