आज सुबह जब खुली मेरी आंख...
तो तुम नहीं थी...
नहीं मिला बिस्तर के सिरहाने रखा...
वो चाय का कप...
कसमसा कर रह गया मेरा हाथ...
जाने क्यूं तुम नहीं थी...
उनींदी आंखों को मसलती रह गई ...
तेरी जुल्फों को तलाशती उंगलियां...
जब बिस्तर को सहेजते वक्त भी नहीं मिला तुम्हारा साथ...
क्योंकि तुम नहीं थी...
गीला-गीला सा मिला तकिया...
खारा -खारा सा लगा सुबह की हवा का स्वाद
बस तुम नहीं थी...
सिरहाने रखी डायरी में भी...
फटा हुआ मिला वो पन्ना...
जिस पर दर्ज थी तुमसे आखिरी मुलाकात...
हर पन्ने पर भीगे मिले लफ्ज़...
तन्हा मिला हर लम्हा हर जज़्बात...
बस...तुम नहीं थी...
खुली थी चुपचाप खड़ी अलमारी...
बिखरे कपड़ों की तहों में...
उलझे मिले कई संवाद...
बस तुम नहीं थी...
बाल्कनी में खामोश बैठी थी ...
तुम्हारे बिना... पिछले हफ्ते खरीदी कुर्सी...
बाट जोह रही थी...
मेरे इंतज़ार के साथ...
बस तुम नहीं थी...
सुबह होने का अहसास कराती....
नहीं थी ओस की बूंदों सी जगमगाती तुम्हारी कोई बात...
तुम्हारी शरारती नज़रों को ढूंढते रहे अहसास....
पर ...तुम नहीं थी...
रह रहकर गूंजती रही तेरी खनखनाती हंसी...
तेरे ख्याल से जब करनी चाही बात...
होठों में उलझ कर रह गए अल्फाज़...
हां ...तुम नहीं थी...
बस है तुम्हारी याद...
बस है तुम्हारी याद...
बहुत मार्मिक आभिव्यक्ति है बेहतरीन रचना शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंमार्मिक रचना
जवाब देंहटाएंदिल को छू गयी
व्यथा को समझने के लिए धन्यवाद ...
जवाब देंहटाएंbahut hi achchhi rachna
जवाब देंहटाएंbahut khub, dil ki baat jaban panno par aa gayi...
जवाब देंहटाएंफिर से कहूंगा ... व्यथा को समझने के लिए धन्यवाद :)
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