रविवार, 16 अगस्त 2020

पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त

आधा-अधूरा यह लेख साल 2017 का लिखा है, बहुत सी उम्मीदों के साथ... उस तस्वीर के सहारे जिसमें धोनी श्रीलंका के साथ एक मैच के दौरान दर्शकों के हंगामे के बीच आराम करते नज़र आए... इस लेख को उस तस्वीर के साथ ही सहेज कर रख दिया था,  ऐसी और भी बहुत सी तस्वीरें हैं जिन्हें धोनी ने यादगार लम्हों में बदला है... महेन्द्र सिंह धोनी के अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से संन्यास की खबर के साथ वे सभी तस्वीरें ज़हन में ताज़ा हो चली हैं... 

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एक कस्बाई सपने का अंगड़ाई लेकर पूरा होना, छोटे-छोटे शहरों के बड़े-बड़े अरमानों का मुकम्मल होना, हाथ से फिसलते वक्त को उसी शिद्दत से थामे रहना जिस जुनून के साथ पहली बार बल्ला थामा था... आप किस्से कहते जाएंगे लेकिन महेन्द्र सिंह धोनी भारतीय क्रिकेट के किंवदंती पुरुष के रुप में ही पहचाने जाएंगे जिन्होंने आंकड़ों को झुठलाते हुए असंभव को संभव कर दिखाया है, बिल्कुल किस्से-कहानियों की तरह।

साल 2017... भारत और श्रीलंका के बीच हुए तीसरे वन-डे मैच में श्रीलंका ने पहले बल्लेबाज़ी करते हुए 50 ओवर में 9 विकेट खोकर 217 रन बनाए। भारत की शुरुआत ज़्यादा अच्छी नहीं रही। शुरुआती झटकों के बाद टीम इंडिया को रोहित शर्मा और धोनी ने शानदार बल्लेबाज़ी से संभाला। भारतीय टीम जैसे ही लक्ष्य के करीब पहुंची, श्रीलंकाई फैन हार को निश्चित देखकर अपना आपा खो बैठे। दर्शकों के हंगामे से मैच को रोकना पड़ा और एम एस धोनी उसी हंगामे के बीच बेफिक्री से आराम फरमाते हुए नज़र आए। मैच कुछ देर बाद फिर से शुरु हुआ और भारत ने श्रीलंका को 6 विकेट से हराकर सीरीज़ अपने नाम कर ली। मैच में शतक बेशक रोहित शर्मा ने लगाया लेकिन जाने-अनजाने ही धोनी क्रिकेट प्रेमियों का दिल जीतकर ले गए।

धोनी मैदान पर जितने बेफिक्र नज़र आते हैं अपनी ज़िम्मेदारी भी वो उतनी ही बखूबी निभाते हैं। एक जबरदस्त हिटर और उससे भी बेहतरीन मैच फिनिशर। व्यवहार में बेलौस लेकिन किरदार एकदम करिश्माई। धोनी कब, कैसे और कहां से मैच का पासा पलट दें, ये समझ पाना क्रिकेट के नामचीन जानकारों की समझ से परे है। याद कीजिए साल 2011, क्रिकेट विश्व कप का फाइनल मुकाबला, भारत और श्रीलंका आमने-सामने। क्रिकेट जिस देश का धर्म सरीखा बन जाए, उस देश की क्रिकेट टीम के कप्तान पर उम्मीदों का कितना बोझ होगा... इसका अंदाज़ा लगाना जितना मुश्किल है, उतना ही उन उम्मीदों पर खरा उतरना। ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि इस सपने को धोनी से बेहतर कोई पूरा भी नहीं कर सकता था। नाबाद 91 रन और वो विजयी छक्का आज भी भारतीय क्रिकेट प्रेमियों के ज़हन में ताज़ा है।

जिस देश में हर चाय की दुकान पर एक कमेंटेटर बैठा है और हर पान की दुकान पर एक अदद सेलेक्टर, उस भारतीय जनमानस के दिलों को यूं इस कदर अपना मुरीद बना लेना हर किसी के बस की बात नहीं। साल 2007... टी-20 वर्ल्ड कप का फाइनल मैच, खिताबी भिड़ंत में मुकाबला भारत और पाकिस्तान के बीच। क्रिकेट प्रेमियों के लिए इससे बेहतर सौगात हो ही नहीं सकती, साथ ही भारत और पाकिस्तान के लिए इससे बड़ी जीत और कोई नहीं। मैच के आखिरी रोमांचक लम्हों में कांटे की टक्कर देखने को मिली। एक वक्त जब लगा कि पाकिस्तान मैच का रुख पलट सकता है, तभी कैप्टन कूल धोनी ने अपने आखिरी दांव से पूरी बाज़ी ही पलट कर रख दी। माही का फैसला रंग लाया और जोगिंदर शर्मा ने अपने कप्तान के भरोसे को सही साबित किया। नतीजा... भारत टी-20 विश्व कप चैंपियन।

धोनी की बात हो और हेलीकॉप्टर शॉट का ज़िक्र न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। इस शॉट की बदौलत धोनी न सिर्फ गेंद पर मनमाना प्रहार करते हैं बल्कि विरोधियों के हौंसले भी पस्त करने का काम बखूबी करते हैं। गेंदबाज़ का उतरा हुआ चेहरा, मायूस क्षेत्ररक्षकों के झुके हुए कंधे और गेंद पलक झपकते ही सीमा रेखा के पार। विकेट के आगे ही नहीं धोनी का दबदबा विकेटों के पीछे भी उतना ही कायम है। शुरुआत में धोनी की तकनीक पर बहुत सवाल उठाए गए, लेकिन अपने शानदार प्रदर्शन से धोनी ने सभी आलोचकों का मुंह बंद कर दिया।

पिछले कुछ अरसे से बेशक धोनी के प्रदर्शन में उतनी निरंतरता नहीं दिखी, लेकिन हालिया भारत-श्रीलंका सीरीज़ में धोनी ने दिखा दिया कि वो अभी भी चूके नहीं हैं। बढ़ती उम्र और फिटनेस का तकाज़ा... माही के सामने चुनौतियां बहुत हैं। ऐसे में 2019 वर्ल्ड कप की युवा टीम में जगह बचाए रखने की डगर आसान नहीं है। लेकिन माही ने तमाम क्रिकेट इसी तरह ही तो खेली है।

क्रिकेट अनिश्चितताओं का खेल है जहां एकमात्र निश्चितता आपका प्रदर्शन तय करता है। धोनी ने लगातार अपनी क्रिकेट से ये साबित किया है कि वो क्रिकेट की दुनिया के धूमकेतु नहीं, जो कुछ वक्त चमकने के बाद धूमिल पड़ जाएं, बल्कि धोनी भारतीय क्रिकेट के ध्रुव तारे की तरह हैं जो सहजता से सब कुछ देख रहा है। उसी बालसुलभ मुस्कान और लहराती जुल्फों के साथ... जब हम सभी ने उन्हें पहली बार देखा था।

पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त . . .

मंगलवार, 29 मई 2018

मूर्खता सूचकांक और हम


मूर्खता एक आवरण है या आचरणयह अनंत काल से शोध और समाज दोनों का हिस्सा रहा है। वहीं
मूर्खता सूचकांक एक ऐसी परिकल्पित पद्यति है जिसके अस्तित्व और प्रमाणिकता पर संदेह करना किसी वज्र मूर्ख को आईना दिखाने की ही तरह घातक हो सकता है, इसलिए भूल कर भी ऐसा कतई न करें।
मूर्ख होना कोई अपराध नहीं है, मूर्खतापूर्ण आचरण भी किसी अपराध के दायरे में नहीं आतालेकिन मूर्खों को संरक्षण देना, उनको प्रश्रय देना यकीनन समाज के प्रति एक बहुत बड़ा अपराध है।
सोच समझकर की जाने वाली मूर्खता वास्तव में एक सोची समझी साज़िश की ही तरह होती है। वहीं नैचुरल मूर्खता तो नैसर्गिक सौंदर्य की तरह होती है, जो अपने आसपास के लोगों को अभिभूत किए रखती है। इसके लिए आपको सावधान इंडिया, सीआईडी या फिर क्राइम पेट्रोल देखने की जरूरत नहीं है।
भाबी जी घर पर हैं... जीजाजी छत पर हैं या फिर जेठालाल के दिमाग का इस्तेमाल करते हुए भी आप यथोचित निष्कर्ष तक पहुंच सकते हैं।
मूर्खता समझदारी के सभी दायरों के परे अपने पंख पसारती है, तर्क-वितर्क की नैतिकता के परे... एक अपना स्वयं का नखलिस्तान, जहां के नियम-कायदे खुद तय कर लिए जाते हैं। जहां दूध, दारू, पेट्रोल-डीज़ल सब तरल पदार्थ होते हैं, लिहाज़ा उनकी आपस में तुलना जायज़ है।
वैसे समाज का संवेदी सूचकांक अगर लगातार गिर रहा है तो मूर्खता सूचकांक लगातार बढ़ रहा है, लेकिन फिर भी ये कतई चिंता का विषय नहीं है। ऐसा सूचकांक अपने आप में ही एक मूर्खतापूर्ण परिकल्पना है लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमें तमाम दायरों से परे ले जाती है। आजकल के यथार्थवादी दौर में हमें बहुतायत में मूर्खों की आवश्यकता है 
जरूरत रियलिस्टिक होने की है, अब जरूरत है तो है और वो भी नाना प्रकार के मूर्खों की बंपर जरूरत... अगर फॉर्म निकलें और वो भी आपकी नज़रों के सामने से निकल आएं तो जरूर भरें, फल की चिंता न करें आप दूसरों के जीवन का हल बनें। ... मूर्ख होना एक कला है, आर्ट है... अगर आप में यह योग्यता प्राकृतिक रूप से नहीं पाई जाती है तो थोड़ी सी मेहनत आपकी ज़िंदगी में आमूल-चूल परिवर्तन ला सकती हैं। रोज़ाना अभ्यास से आप उच्च कोटि के मूर्ख बन सकते हैं। मूर्ख बनने का फायदा तभी है जब आप अच्छे मूर्ख बनें। इसके लिए आपको किसी और से सर्टिफिकेट लेने की आवश्यकता नहीं है, खुद पर भरोसा रखें और आप हर श्रेणी में बिना कोई पेपर लीक कराए टॉप कर सकते हैं।
उदाहरण के लिए:-
*सुनने वाले मूर्ख,
*बोलने वाले मूर्ख,
*देखने वाले मूर्ख
*सोचने वाले मूर्ख
*ताली बजाने वाले मूर्ख,
*खीसें निपोरने वाले मूर्ख,
*झपटालू मूर्ख
*झगड़ालू मूर्ख
*भाषाई मूर्ख
*सतही मूर्ख
*सामाजिक मूर्ख
*प्रोफेशनल मूर्ख
*ले मूर्खदे मूर्खये मूर्ख... वो मूर्ख
वगैरह-वगैरह।
वस्तुतः मूर्खता किसी धर्म, मज़हब या परिचय की मोहताज नहीं अपितु यह तो वो कस्तूरी है जो आपके जाने बगैर आपके समूचे परिवेश को सुवासित करे रखती है और आप अनजान बने रहते हैं। वर्तमान में तो ये एक जीवन पद्यति हो चली है। असल मूर्ख कभी स्वयं से लज्जित नहीं होते, वो हमेशा खुद के फेवरेट होते हैं, किसी चपल सुंदरी की तरह। मूर्खता को वो आभूषण की तरह धारण करते हैं और अज्ञान को अपना अहंकार बना लेते हैं। उनका आत्मविश्वास उनकी असली ताकत होता है और उनकी आस्था किसी सेल्फ हेल्प बुक की ही तरह एकदम चकाचक।
पहले निपट अज्ञानता के चलते मैं कई मूर्खों का यथोचित सम्मान नहीं कर पाया...
(*आप भी नहीं कर पाए होंगे, अब सुधार लीजिए)
परन्तु अब ऐसा बिल्कुल नहीं है। अब मैं उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखता हूं। मेरे परिचय में कई परम मूर्ख हैं जो चरम दर्जे की मूर्खता के परिचायक हैं और अक्सर अपनी धृष्टता को निहायत ही प्रोफेशनल अंदाज में अंजाम देते हैं लेकिन वो निर्दोष हैं, भोले हैं, मासूम हैं, बिल्कुल नेताओं की तरह। किसी पर भी भरोसा कर लेते हैं और आजीवन मूर्खता का निर्वाहन करने की शपथ लेकर अपना सारा जीवन, सारी मूल्यवान ऊर्जा... जनकल्याण के लिए समर्पित कर देते हैं। यहां कन्फ्यूज़न की कोई गुंजाइश नहीं है, नेता कभी मूर्ख नहीं होते हैं और मूर्ख कभी नेता नहीं बन सकते हैं। सिद्धांतत: ऐसा ही होना चाहिए।
आप मूर्खों से बच नहीं सकते, वो टेक्नोलॉजी की तरह आपके जीवन के हर हिस्से में अब मौजूद हैं। ऐसा नहीं है कि वे बुद्धि विहीन हैंबुद्धि होती है लेकिन उस फ्री डेटा की तरह जो आपके अकाउंट में तो होता है लेकिन बिना नेटवर्क आप इस्तेमाल करें भी तो कैसे ।
सोशल मीडिया ने सब कुछ इतना सहज और सरल बना दिया है कि आप तुरंत मूर्खता का सीधा प्रसारण कर सकते हैं, कोई बिचौलिया है ही नहीं, बस आप और आपकी ऑडियंस।
आप समझदार हैं इसलिए अर्थ निकालेंगे मूर्ख होते तो अर्क भी निकाल लेते और तर्क भी।

डिस्क्लेमर:- उपरोक्त पोस्ट में जितनी बार मूर्ख और मूर्खता शब्द या भाव का इस्तेमाल हुआ है वह अलग-अलग संदर्भों में है, कोई एक कृपया स्वयं को धन्य न समझें।

मंगलवार, 31 अक्तूबर 2017

बचपन का ‘सारा आकाश’ (2017)

समर और प्रभा ... उस वक्त सिर्फ दो किरदार नहीं थे ...
वो एक बाल-मन की सोच का सच बन चुके थे।

एक ऐसा सच जिसे वो बचपन खुद जीना चाहना था, कहना चाहता था और शायद एक दिन लिखना भी चाहता था।
(ये बचपन के बाल साहित्य से अलग दुनिया थी, सतही नहीं बल्कि सार्थक)

साहित्य क्या होता है ?
यथार्थपरक... यथार्थपूरक या फिर इससे परे ... एक अलग ही दुनिया।
या फिर एक ऐसी अजब दुनिया का दरवाज़ा जिसके एक तरफ हमारी खुली आंखों का सच होता है और दूसरी तरफ हमारी बंद आंखों के सपने, जिन्हें हम अक्सर खुली आंखों से देखा करते हैं।

बचपन इस जद्दोजहद से परे था...

सालों पहले बचपन स्मार्टफोन का गुलाम नहीं था, और न ही इंटरनेट की क़ैद में असली ज़िंदगी से परे आभासी दुनिया में उलझा हुआ। ये वो वक्त था जब ब्लू व्हेल किस्से-कहानियों के किसी किरदार सरीखी हुआ करती थी, न कि मासूमों के जीवन पर ग्रहण लगाते किसी गेम का पर्याय। जब स्कूल, ट्यूशन और पढ़ाई के बाद भी बचपन के पास इतना वक्त होता था जिसमें वो अपने आस-पास की दुनिया के रहस्यों में खो सकता था। भारत एक खोज के परे उसके अपने अनुसंधान बेहद तल्लीनता के साथ चलते रहते थे। टेलीविज़न उस वक्त सिर्फ मनोरंजन ही हुआ करता था, आदत या जरूरत नहीं। मीलों की दूरी बचपन अपने कदमों से नाप लेता था बिना थके, बिना रुके और बिना गूगल मैप्स की मदद के। ये दौर शायद गूगल के भी बचपन का ही दौर था, जब उसने इंसानों की दुनिया पर कब्ज़ा जमाना शुरु कर दिया था।


बचपन वाकई बेफिक्र था, बेलौस था। वो एक अलग ही जिंदगी जी रहा था, अपनी उम्र के बाकी बच्चों की ही तरह।
बचपन जो दूरदर्शन पर चित्रहार और साप्ताहिक फिल्मों का इंतज़ार करता था, टेपरिकॉर्डर पर गाने सुनकर चुपके-चुपके गुनगुनाता था।
बचपन जो चोरी-छुपे राजकुमारी चंद्रकांता को बहुत पसंद करने लगा था, वो एक दिन अचानक समर और प्रभा की ज़िंदगी के पन्ने उलटने लगा। स्कूल की किताबों और कॉमिक्स की दुनिया से परे उसे जैसे एक खज़ाना हाथ लग गया था। कक्षा...साल , तारीख... महीना ... कुछ याद नहीं , लेकिन जो भी पढ़ा वो जैसे स्मृति में दर्ज़ होता चला गया।
धीर-धीरे बचपन लड़कपन से होता हुआ, किशोरावस्था की तरफ बढ़ने लगा। सारा आकाश के साथ ही वो अब एक जिज्ञासु पाठक में तब्दील हो रहा था।


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सारा आकाश ...
कितनी बार पढ़ी , याद नहीं...
एक सामाजिक बंधन की मजबूरी बहुत ही सहजतापूर्वक,  शब्दों के माध्यम से एक रेखाचित्र सरीखी याद बनकर रह गई। या फिर यूं कहें कि उस दौर की एडजस्टमेंट का वो खाका जिस तरह से खींचा गया शायद उसकी प्रासंगिकता आज भी कहीं ना कहीं बरकरार है, बस किरदार बदल जाते हैं, हालात बदल जाते हैं और ज़िंदगी कमोबेश वही, वैसी ही नज़र आती है।



एक अरसे तक पति-पत्नी के बीच की संवादहीनता और फिर बरसों बाद उस रिश्ते का अहसास और उस रिश्ते को नए सिरे से जीने की कोशिश और फिर एक नए परिप्रेक्ष्य में उस रिश्ते का अपने वजूद के लिए संघर्ष ... और परिणति।


' हंस ' पढ़ने का मौका बहुत बाद में मिला हालांकि अज्ञानतावश उस वक्त  ' हंस ' और ' सारा आकाश ' को एक साथ रखकर नहीं देख पाया । कुछ कहानियां जरुर पढ़ीं , फिर साबका हुआ एक कहानी से  ...  'एक कहानी यह भी ' ... उसके बाद 'आपका बंटी' और फिर ' एक इंच मुस्कान ' । राजेन्द्र यादव और मन्नू भंडारी अब तक बचपन को अपने साहित्य से काफी आगे तक ले आए थे।


खासकर ' एक इंच मुस्कान ' जैसा प्रयोग, मैं (बचपन से आगे) इस तरह की साहित्यिक प्रयोगधर्मिता के बारे में सुनकर ही उसे पढ़ने को लेकर बेहद उत्साहित था, और पढ़ने के बाद ...संतुष्ट। इसके साथ ही इधर एक और डेवलपमेंट हुआ, अब मैं खुद को बंटा हुआ महसूस करता था, उसके बाद कोशिश की दोनों को ज़्यादा से ज़्यादा पढ़ने की ताकि दोनों को समझ सकूं, दोनों का पक्ष ... दोनों का लेखन ... अपनी जानकारी के हिसाब से, संदर्भित व्याख्या के साथ ग्रहण कर सकूं। सत्य क्या है, साहित्य क्या है ...  मन्नू भंडारी का लिखा पढ़ने के बाद राजेन्द्र यादव औऱ उनका लेखन दोनों मुझे वक्त वक्त पर अपनी तरफ खींचते रहे।


हम लिखते हैं क्योंकि हम महसूस करते हैं लेकिन एक लेखक के तौर पर क्या हम वो सब कुछ लिख पाते हैं जो हम महसूस करते हैं। यहां महसूस करने को जिंदगी जीने के भाव के तौर पर समझना ज्यादा सार्थक रहेगा। और यही जीवन की सार्थकता एक पाठक के तौर पर ' सारा आकाश ' में महसूस होती है।


शब्दों में छिपी भावनाएं ...
हालात बयां करते वाक्य ...
तमाम जिंदगियों को समेटे साहित्य ...
और साहित्य में बसा सच ...


शुक्रिया ... आकाश के रचयिता !!! 

एक बचपन के आसमान को किरदारों से भरने के लिए !!!

(हेमन्त वशिष्ठ)

गुरुवार, 1 जून 2017

ज़िंदगी के ज़ायके -2


( अरसे से पेंडिंग एक ज़ायका )

ज़िंदगी के ज़ायके अजब-अनूठे हैं लेकिन इस स्पेशल ज़ायके को चखने के लिए आपको एक अदद भूखे पेट के साथ बहुत सारी हिम्मत की जरूरत होगी। ये थाली बेशक देखने में साधारण सी है, लेकिन स्वाद ऐसा जो आपको ज़िंदगी भर याद रहे. . .


 लाल मिर्च. टमाटर और लहसुन की तेज़, तीखी और लाल चटख चटनी ... चटनी का ये हुलिया पढ़ने में जैसा लग रहा है हकीक़त में उससे कहीं ज़्यादा तीखा और मिर्च से भरपूर है, स्वाद ऐसा की ज़ुबान पर रखते ही आप आज से पहले खाई हुई हर तरह की लाल या हरी मिर्च को भूल जाएं। सिर्फ मिर्च का तीखापन ही नहीं, बल्कि इस चटनी का मिज़ाज आपके मिज़ाज से मेल खा जाए, इसका होना भी जरूरी है। इसके बगैर आप सिर्फ लाल मिर्च का तीखापन ही याद रख पाएंगे, पूरे स्वाद को सराहने के लिए दिल को मज़बूत करना बेहद जरूरी है। इस अहसास को आहिस्ता-आहिस्ता आप जज़्ब कर पाएं, इसलिए साथ में हैं सरसों के तेल में तले हुए करारे आलू (फ्रेंच फ्राईज़ का भारतीय संस्करण), इसे आपको खाना औऱ सराहना होगा, अगर आप मैकडॉनल्ड चाहते हैं तो वो यहां नहीं मिलेगा, लेकिन यहां जो आपको मिलेगा वो आपको यकीनन किसी और जगह नहीं मिलेगा, सिवाय आपके घर के जहां आप खुद से इस थाली को तैयार कर सकते हैं अपने स्वाद के हिसाब से। 
अगर आपको अभी भी थाली में मिर्च कम लग रही है तो अचार के लिए मसालेदार भरवां लाल-हरी मिर्च भी आपका बेसब्री से इंतज़ार कर रही है... आमतौर पर भरवां या अचार के लिए इस्तेमाल की जाने वाली मिर्च उतनी तीखी नहीं होती है, लेकिन ये अचार वाली मिर्च तीखेपन के मामले में आपको ज़रा भी निराश नहीं करती है, आप खाते जाएं और आपके दिमाग में बजती घंटियां मसालों के असर तले सब कुछ बर्दाश्त करती जाएंगी।
 आलू और प्याज़ के भरवां परांठे, जिनमें आलू और प्याज़ के मिश्रण में बारीक कटी हुई हरी मिर्च और भीतरी परत पर लाल मिर्च और लहसुन का गाढ़ा लेप। और आप किसी तरह इसे खाने के लिए राज़ी हो जाए, इसके लिए भुने हुए जीरे और नमक वाली अनलिमिटेड छाछ।  

गर्मी की भरी दोपहरी में इस तरह का तीखा और मसालेदार भोजन खाने के लिए वाकई बहुत हिम्मत चाहिए, लेकिन जब आपको ज़ोरों की भूख लगी हो तो सारी हिम्मत आप कहीं से भी जुटा लेते हैं। ठीक इसी जगह पर, जहां अभी ये ढाबा है, वहां पर पहले कोई और ढाबा या होटल था जहां के ज़ायके का बंधु कुणाल पहले आनंद उठा चुके थे। जयपुर से अजमेर के रास्ते में इस बार खाने का वो ठिकाना तो नहीं मिला लेकिन उस ठिकाने पर ये अनूठा ज़ायका जरूर मिला, जो कई महीने बीत जाने के बाद आज भी ज़ुबान को उसी तरह महसूस हो जाता है। 


मंगलवार, 16 मई 2017

मॉनसून के लिए तैयार दिल्ली !!!

पिछली बारिशों की एक शाम
मई की तपती गर्मी के बीच राजधानी दिल्ली के निवासियों के लिए कुछ राहत की फुहारें बहुत सुकून लेकर आई हैं। पूरी दिल्ली का सरकारी अमला इन दिनों दिल्ली के सीवेज़ और ड्रेनेज सिस्टम को सुधारने में जुटा है जिससे मॉनसून आने पर राजधानी के लोगों को किसी तरह की परेशानी का सामना न करना पड़े। आपसी गिले-शिकवे, आरोप-प्रत्यारोप, नारे और वादे, समर्थकों से वादाखिलाफी औऱ विरोधियों की छीछालेदर... सब कुछ मनों और टनों की मात्रा में सुबह से शाम तक रोज़ाना गटर में बहाया जा रहा है जिससे इन पदार्थों की प्रवृति के अम्लीय स्वभाव से शहर की गंदगी को साफ किया जा सके। आमतौर पर ये कवायद (कई बार देखा गया है) मॉनसून के आने पर ही शुरु की जाती है लेकिन इस बाद माहौल बदला हुआ है।

कई प्रेस कॉन्फ्रेंसों के ज़रिए पहले से ही मच्छरों की ब्रीडिंग पर काफी हद तक काबू पा लिया गया है। जगह-जगह अनशन और धरनों के माध्यम से नालों की सिल्ट, गाद साफ की जा चुकी है, नालियां चमचमा रही हैं। सिस्टम को इस हद तक साफ कर दिया गया है कि आप यमुना नदी में गिरने वाले नालों में बेझिझक स्नान का आनंद उठा सकते हैं। अत्यंत कड़े शब्दों में निंदा कर, दिल्ली के ड्रेनेज सिस्टम को भी दुरुस्त कर लिया गया है। हालांकि कई बार विभागों के आपसी समन्वय और आंकड़ों के मकड़जाल में उलझे रहने की वजह से इफेक्टिव मैनपावर और इफेक्टिव मैनआवर के बीच तालमेल गड़बड़ाया जरूर है लेकिन इस बार हालात बदले हुए नज़र आ रहे हैं। 

सेंट्रल दिल्ली निवासी मिंटो ब्रिज और तिलक ब्रिज से जब इस बारे में बात की गई तो वे मॉनसून को लेकर काफी उत्साहित नज़र आए। जलभराव का ज़िक्र उन्हें थोड़ा संजीदा कर गया, पानी से भरी सड़क जब तालाब में तब्दील हो जाती है तो उन्हें बचपन के दिन याद आ जाते हैं जब बच्चों के लिए तालाबों तक की किल्लत नहीं थी। यही कुछ उद्गार ज़खीरा पुल ने भी व्यक्त किए, कई बारिशों में बसों की साफ-सफाई का काम ज़खीरा पुल के नीचे और आस-पास तसल्लीबख्श तरीके से किया गया है। ऐसे और भी कई इलाके हैं, लेकिन सभी की बात आप तक पहुंचाते-पहुंचाते हम अगले मॉनसून तक जा पहुंचेंगे। लेकिन हां, भयंकर गर्मी और लू के थपेड़ों को सहने के बाद बारिश की बूंदों की बाट जोहते दिल्ली वालों को जगह-जगह जलभराव के बहाने प्रकृति के नज़दीक आने का अवसर सालों से दिया जा रहा है।

ट्विटर, इंस्टाग्राम औऱ फेसबुक के माध्यम से राजधानी जगमगा रही है, राजधानी दिल्ली लंदन में तब्दील हो चुकी है। जियों के अनलिमिटेड डाटा के बोझ तले फ्री वाई-फाई कसमसा रहा है। मॉनसून के लिए राजधानी को तैयार कर लेने के बाद फिलहाल गर्मी में कई इलाकों में हो रही पानी सप्लाई में दिक्कत पर काबू पाने के लिए कई खुलासों का सहारा लिया जा रहा है। पुराने रहस्यों को ज़ाहिर कर पाइपलाइनों की मरम्मत का काम किया जा रहा है। राजधानी में जगह-जगह पोल-खोल महोत्सव आयोजित किए जा रहे हैं जिससे साफ-सफाई के महत्व को जन-जन तक पहुंचाया जा सके। नालों की सफाई से निकली गाद और कीचड़ का इस्तेमाल धड़ल्ले से विरोधियों पर हमला बोलने के लिए किया जा रहा है, जिससे कालिख हो या कीचड़ कुछ भी व्यर्थ न जाने दिया जाए। 

जनता खुश है... 
राजधानी की बांछें खिल गई हैं... 
बादलों के इंतज़ार में यमुना का जल हिलोरें मार रहा है... 
झकाझक साफ सड़कें कड़ी धूप में सेल्फी ले लेकर खिलखिला रही हैं... 
दिल्ली तैयार है... 
बादल, बारिश ... मॉनसून... 
सब नै आण दे !!!



रविवार, 19 फ़रवरी 2017

मां के लिए



आसां नहीं
एक उम्र को जीना...
मां होना...
मुश्किलों को भुला देता है...
वो दुआएं होती हैं
झुर्रियां नहीं...
वक्त ...
मां की मन्नतों का भी हिसाब रखता है...
अपने हिस्से के निवाले,
परोस देती हैं अक्सर...
बच्चों की भूख का
मां पर ज़्यादा असर होता है...
नींद पूरी होती नहीं है...
जागती रहती है मां...
बच्चों का हर ख्वाब,
मां की आंखों में सबसे पहले पूरा होता है . . . 


( ये तस्वीर एक सफर के दौरान चलते-चलते खींची गई थी. . . हर मां आखिर ऐसी ही तो होती है ) 

गुरुवार, 8 दिसंबर 2016

My ATM diaries - 1

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लोग फिर से एक-दूसरे पर भरोसा करने लगे हैं, देख कर-जान कर-समझ कर अच्छा लगता है, बहुत अच्छा... और भरोसा भी इस हद तक कि एक-दूसरे से अपने एटीएम/डेबिट कार्ड का पिन नंबर तक शेयर करने लगे हैं। डेबिट कार्ड और एटीएम के इस्तेमाल के तमाम नियम-कायदे उसी लाइन को ताक रहे हैं, वहीं किसी कोने में सिमटे हुए। अब एटीएम इस्तेमाल करते हुए उस छोटे से कमरे में एक कैमरे के साथ आपके इर्द-गिर्द 10 लोग अमूमन होते हैं, जो ये सुनिश्चित करते हैं आप अपना एटीएम पिन सही भरें और रकम नियम के मुताबिक, ज़्यादा नहीं। बिग बॉस कैमरे से सब देख ही रहे होंगे, जो नहीं दिख रहा होगा वो यह है कि लोग बेधड़क एटीएम की लाइन  में लगे परिचितों-अपरिचितों को अपने डेबिट कार्ड और पिन नंबर सौंप रहे हैं। लोग पैसे निकालने में हंसते-मुस्कुराते एक दूसरे की मदद कर रहे हैं, सुख-दुख बांट रहे हैं, किस एटीएम में पैसा कब आता है, कितनी बार आता है... कहां जल्दी खत्म हो जाता है... ये तमाम जानकारियां आपको न गूगल पर मिलेंगी, न किसी ऐप पर। ये ज़िंदगी के खरे अनुभव हैं जो आपके ज़िंदगी की लाइन में लगकर ही मिलते हैं, एटीएम तो बस साधन है।

वैसे मजबूरी और जरूरत लोगों को आपस में भरोसा करना सिखा देती है। हर बुराई की तरह हर तरह की अच्छाईयां भी आपके भीतर ही होती हैं, हमेशा से रही हैं। आपको सिर्फ पहचानने की जरूरत होती है, न जाने किस मोड़ पर नारायण मिल जाए या फिर न जाने किस मोड़ पर एटीएम मिल जाए... ऐसा आदर्श एटीएम जहां कोई लाइन न हो, जहां भरपूर कैश हो . . . जहां 2000 रुपए के पिंकू नोट के अलावा 500 और 100 रुपए के करारे नोट भी मिलते हों, एकदम नए... जैसे छप रहे हैं धड़ाधड़ आपके लिए।

जरूरत के वक्त एक-दूसरे के काम आना ही इंसान की असली पहचान है, लेकिन ये विशेषता कलियुग की पहचान तो नहीं मानी जाती लेकिन लोगों ने इस युग को भी झुठला दिया है। ऐसे नितांत अजनबी लोग, जिन्हें पहले आप कभी मिले भी नहीं, कोई जान-पहचान तक नहीं... बस एक एटीएम की लाइन का साथ...ऐसा लगने लगता है जैसे आप उन लोगों को सालों से जानते हैं। आप उनके सुख-दुख, ज़िंदगी में शरीक होने लगते हैं। इसके अलावा धैर्य, संयम, साहस, समझदारी, वाक-चातुर्य, बोली की मिठास सब कुछ लौट आया है आपकी ज़िंदगी में इस लाइन के बहाने। बेशक इन सब मूल्यों का औचित्य अपनी जगह हैं और पैसों की उपयोगिता अलग, लेकिन आपकी प्राथमिकता क्या है... तय कर लीजिए उन तमाम लोगों और उन तमाम जरूरतों के बीच। अपने अनुभव शेयर करते रहिए... क्योंकि बांटने से जानकारी बढ़ती है, प्यार बढ़ता है, शायद पैसा भी और भरोसा भी। ज़िंदगी बदलने के लिए तो खैर एक लम्हा भी बहुत होता है, अब तो एक महीना हो चला है। इस लाइन में चलते-चलते हम वापिस कब इंसान हो चले हैं, हमें खुद ही पता नहीं। सामाजिक समरसता का ये दौर मुबारक हो !!!

शनिवार, 26 नवंबर 2016

ज़िंदगी के ज़ायके -1


ज़िंदगी के फलसफों के अपने ही ज़ायके हैं, खुद ज़िंदगी के ज़ायके हज़ार हैं, इनमें से कौन-सा ज़ायका आपका है... ये आपको खुद ही चख कर, परख कर खोज निकालना होगा। कोई और आपके लिए इस काम को अंजाम नहीं दे सकता है वो बस आपको राह दिखा सकता है, आपके भीतर बसी उस इच्छा को, उस सपने को पंख दे सकता है। हंसी का, खुशी का... सपनों का , ज़िंदगी का... सबका ज़ायका अलग-अलग है, सबका स्वाद अलग है। ज़िंदगी के सफर में कदम-कदम पर यही ज़ायके...यही स्वाद ...यही फलसफे बेशुमार हैं, आप बस चलते रहिए ।

एक अजब संयोग था ये रोड ट्रिप। कुछ दिन पहले तक हम लोग बातें कर रहे थे, हिमालय में अनदेखे, अनजाने रास्तों के सफर के लिए। हम लोग यानी मैं, कुणाल औऱ चेतन। कुणाल और मैं किसी कारणवश तय वक्त पर उस तय सफर के लिए नहीं निकल सके लेकिन चेतन मुसाफिर बाबानिकल पड़ा अपनी धुन में। हम लोग संपर्क में रहे तब तक, जब तक वहां चेतन के फोन में नेटवर्क बरकरार रहा, उसके बाद इंतज़ार होता रहा उसके नेटवर्क युक्त इलाके में आने और संपर्क स्थापित करने का।
यहां दूसरी तरफ उसके सफर पर निकलने के दो-तीन दिन बाद यूंही बातो-बातों में कुणाल और मैंने माउंट आबू की तरफ निकलना तय कर लिया। एक तरफ हिमालय के पहाड़ तो वहीं उसके ठीक उलट जून के महीने में दिल्ली की भयंकर गर्मी, हरियाणा और राजस्थान के तमाम रास्ते पार करते हुए आस-पास के इलाके के एकमात्र हिल-स्टेशन माउंट आबू तक का सफर। थोड़ा मुश्किल जरूर लगा लेकिन इस सफर का सबसे बड़ा आकर्षण था... अजमेर में दरगाह शरीफ जाना और फिर उसके बाद एक दिन पुष्कर प्रवास। यही वजह थी कि हम दोनों गर्मी के मौसम में आंख मूंदकर निकल पड़े उस सफर पर।
दिल्ली से माउंट आबू तक की दूरी करीब 750 किलोमीटर है, इसलिए सुबह-सुबह जितना जल्दी हो सके उठकर निकला तय हुआ, जिससे सफर के सभी पड़ावों पर तय वक्त से पहुंचा जा सके। लेकिन देर रात तक जाने की प्लानिंग पर ही काम होता रहा। लिहाज़ा सुबह उठना लेट हुआ और फिर उसी हिसाब से घर से निकलना, और उतना ही दिल्ली-हरियाणा का सुबह का मिला-जुला ट्रैफिक। लेकिन एक बार मानेसर को पार करने बाद, ये पूरी तरह से हाईवे का सफर बन चुका था। मेरा ननिहाल राजस्थान के शुरुआती ज़िले अलवर में ही पड़ता है, वो भी राजस्थान-हरियाणा बॉर्डर पर दूसरा या तीसरा गांव... लिहाज़ा धारुहेड़ा, बनीपुर चौक, जयसिंहपुर खेड़ा तक का जयपुर हाईवे का सफर अनगिनत बार तय किया है, इसलिए वहां तक पहुंचने में वक्त का ज़रा भी पता नहीं चला। सफर में होने का अंदाज़ा शाहजहांपुर और नीमराणा पार करने के बाद शुरु हुआ।

सफर जैसा सोचा था... उससे कहीं ज़्यादा दिलचस्प था और जून का महीना जितना होता था उससे कहीं ज़्यादा गर्म। कार के अंदर तो एसी की राहत थी लेकिन उसके बाहर, रास्ते में कहीं रुकते ही लू के थपेड़े बेहाल करने को बेताब... लेकिन सफर जारी रहा . . .

. . . इस सफर में... ज़िंदगी के कई ज़ायके देखने को मिले। बहुत कुछ अनदेखा और अनजाना, जो आप सिर्फ जी सकते हैं ... महसूस कर सकते हैं।  बहुत कुछ जो मैं शायद लिख भी ना सकूं, ये वो अहसास होते हैं जो आपके अपने होते हैं, लेकिन उसके अलावा वो सब कुछ जिसे आप शब्दों में उतार सकते हैं, वो सब लिखने की कोशिश यूंही जारी रहेगी ... 
और हां ... पैसे होना थोड़ा सा जरूरी जरूर होता है लेकिन ज़िंदगी जीने के जितना जरूरी भी नहीं, जी सको तो ज़िंदगी नई करेंसी की तरह... और बहुत कुछ मन में ही रह जाए तो हालत काले धन और 500-1000 के उन नोटों सरीखी हो जाती है जब आपके पास पैसे होकर भी नहीं है, माने ये कि ज़िंदगी चल तो रही है लेकिन आपने उसे जीना बंद कर दिया है... नोट बदलने की ही तरह आपको ज़िंदगी बदलनी होगी... सफर को साथी बनाईए और ज़िंदगी को दोस्त ... 
इसके अलावा सफर के हिस्सों से , हिस्सों में मुलाक़ात होती रहेगी . . .फिर मिलेंगे चलते-चलते !!!

सोमवार, 31 अक्तूबर 2016

एक दीप आपके लिए



ये दीप
जो प्रज्जवलित है
हर देहरी
हर द्वार पर
है रौशनी का आह्वान
जीत हो
अंधकार पर
अहंकार पर
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ये दीप
आप सभी के लिए है
ये दीप
हम सभी के लिए है
ये दीप उन सभी के लिए है
जिनसे इसकी लौ बरकरार है
ये दीप
उन सभी के लिए है
जिन्हें रौशनी की दरकार है
अपनों के लिए है
बिछुड़ों के लिए है
ये दीप
ज़िंदगी के लिए है
सपनों के लिए है
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दीपावली शुभ हो
मंगलमय हो
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सोमवार, 17 अक्तूबर 2016

ये कैसा बहिष्कार !!!


कनॉट प्लेस के इनर सर्किल में 10-12 युवकों का एक समूह नारे लगा रहा था ...
Boycott ... Made in China !!!
. . .और ये युवक लोगों से चीन के बने सामान का बहिष्कार करने की गुजारिश अपने ही तरीके से कर रहे थे। वहीं ... चीन के बने कपड़े...जूते...बेल्ट पहने, पर्स खोंसे - बैग थामे लोग... भरपेट चाईनीज़ खाने के बाद अघाते हुए चकाचक चाईनीज़ फोन निकाल कर धड़ाधड़ बड़े मेगापिक्सल वाली तस्वीरें खींच रहे थे और HD Video बना रहे थे।
लेकिन यकीन मानिए, ऐसा करने से पहले उन्होंने यकीनन तन...मन और धन से चीनी उत्पादों का बहिष्कार कर दिया था (ऐसा लगता जरूर था) ...यहां तक कि फोन में लगे चीन निर्मित अवयवों को भी शायद निकाल बाहर कर दिया होगा। 
(***और बहुत संभव है कि इन युवकों ने जो चीनी सामान के बहिष्कार के नारे वाली टी-शर्ट छपवाई हो; उसमें क्या मालूम ... बनने से छपने से लेकर पहनने तक ... किसी बेहद जरूरी या गैरजरूरी, महीन स्तर पर चीनी मिलावट की गई हो, जो आपको मालूम भी न हो...बेशक गैरइरादतन)
एक दौर था... जब आज़ादी के मतवालों ने स्वदेशी अपनाओ विदेशी भगाओ के असल मायने ब्रिटिश साम्राज्य को समझा दिए थे। देशव्यापी स्तर पर विदेशी विशेषकर अंग्रेज़ी कपड़ों की होली जलाई गई... अंग्रेज़ी सामान का बहिष्कार किया गया...एक आह्वान पर... स्वेच्छा से... अपने देश के लिए। 
आज... बेशक देवी-देवता हमारे हैं लेकिन उनकी मूर्तियां तक चीन से बनकर आ रही हैं, वो भी तरह-तरह के आकार-प्रकार में। दीपावली के दिए, जगमगाती लाईट्स, साज-सजावट... रंग-रोशनियां-उमंग सब कुछ धड़ल्ले से चाईनीज़ चल रहा है। आप किसका बहिष्कार करेंगे... किस-किस का बहिष्कार करेंगे और कैसे करेंगे ... घरों में, दफ्तरों में, आपके आस-पास... इलेक्ट्रॉनिक्स का ज़्यादातर सामान... तमाम चाइनीज़ मोबाईल ... चार्जर और एक्सेसरीज़।
इन सब का क्या करेंगे। इसके अलावा ऐसा बहुत कुछ जो शायद हमें पता भी नहीं है, ऐसा चीनी माल जो हमारे बीच चुपचाप खप रहा होगा... उसका क्या।
अब आप ही कहिए आप कैसा बहिष्कार चाहते हैं, और कैसे उसे अंजाम दिया जाएगा।
क्या आप यानी कि जनता सिर्फ सहूलियत का बहिष्कार चाहती है।
या जनता को ये समझाया जा रहा है कि वो ये चाहती है।
ये जनता आखिर चाहती क्या है।
ये जनता आखिर है क्या...
और सबसे अहम बात...
क्या ये सब जनता के सोचने भर से हो जाएगा। 
क्या फेसबुक, ट्विटर, वाट्सएप, ब्लॉग्स पर क्रांति करने से कोई समाधान निकलेगा !!! पता नहीं, लेकिन क्रांतिकारी जीव जुटे रहेंगे। 
या फिर इसमें किसी तरह के नीति-निर्धारण की जरूरत और गुंजाइश है ... और वो भी आखिर कितनी।
स्वदेशी आखिर कब तक और किस तरह से उस स्तर तक जा पहुंचेगा कि तमाम विदेशी संभावनाएं जड़ से ही समाप्त हो जाएं वो भी उस दौर में जब हम पूरे विश्व को स्वयं एक खुले बाज़ार की तरह देख रहे हैं। 
यह कितना स्वाभाविक... प्रासंगिक और तार्किक है...
जनता कृपया ध्यान दें ...
बाज़ार में चीनी उत्पादों की monopoly तो हमें कतई स्वीकार्य नहीं है, होनी भी नहीं चाहिए ... लेकिन बंधु स्वीकार्य तो हमें वैचारिक monopoly भी नहीं है ... क्या समझे !!!