मंगलवार, 31 अक्तूबर 2017

बचपन का ‘सारा आकाश’ (2017)

समर और प्रभा ... उस वक्त सिर्फ दो किरदार नहीं थे ...
वो एक बाल-मन की सोच का सच बन चुके थे।

एक ऐसा सच जिसे वो बचपन खुद जीना चाहना था, कहना चाहता था और शायद एक दिन लिखना भी चाहता था।
(ये बचपन के बाल साहित्य से अलग दुनिया थी, सतही नहीं बल्कि सार्थक)

साहित्य क्या होता है ?
यथार्थपरक... यथार्थपूरक या फिर इससे परे ... एक अलग ही दुनिया।
या फिर एक ऐसी अजब दुनिया का दरवाज़ा जिसके एक तरफ हमारी खुली आंखों का सच होता है और दूसरी तरफ हमारी बंद आंखों के सपने, जिन्हें हम अक्सर खुली आंखों से देखा करते हैं।

बचपन इस जद्दोजहद से परे था...

सालों पहले बचपन स्मार्टफोन का गुलाम नहीं था, और न ही इंटरनेट की क़ैद में असली ज़िंदगी से परे आभासी दुनिया में उलझा हुआ। ये वो वक्त था जब ब्लू व्हेल किस्से-कहानियों के किसी किरदार सरीखी हुआ करती थी, न कि मासूमों के जीवन पर ग्रहण लगाते किसी गेम का पर्याय। जब स्कूल, ट्यूशन और पढ़ाई के बाद भी बचपन के पास इतना वक्त होता था जिसमें वो अपने आस-पास की दुनिया के रहस्यों में खो सकता था। भारत एक खोज के परे उसके अपने अनुसंधान बेहद तल्लीनता के साथ चलते रहते थे। टेलीविज़न उस वक्त सिर्फ मनोरंजन ही हुआ करता था, आदत या जरूरत नहीं। मीलों की दूरी बचपन अपने कदमों से नाप लेता था बिना थके, बिना रुके और बिना गूगल मैप्स की मदद के। ये दौर शायद गूगल के भी बचपन का ही दौर था, जब उसने इंसानों की दुनिया पर कब्ज़ा जमाना शुरु कर दिया था।


बचपन वाकई बेफिक्र था, बेलौस था। वो एक अलग ही जिंदगी जी रहा था, अपनी उम्र के बाकी बच्चों की ही तरह।
बचपन जो दूरदर्शन पर चित्रहार और साप्ताहिक फिल्मों का इंतज़ार करता था, टेपरिकॉर्डर पर गाने सुनकर चुपके-चुपके गुनगुनाता था।
बचपन जो चोरी-छुपे राजकुमारी चंद्रकांता को बहुत पसंद करने लगा था, वो एक दिन अचानक समर और प्रभा की ज़िंदगी के पन्ने उलटने लगा। स्कूल की किताबों और कॉमिक्स की दुनिया से परे उसे जैसे एक खज़ाना हाथ लग गया था। कक्षा...साल , तारीख... महीना ... कुछ याद नहीं , लेकिन जो भी पढ़ा वो जैसे स्मृति में दर्ज़ होता चला गया।
धीर-धीरे बचपन लड़कपन से होता हुआ, किशोरावस्था की तरफ बढ़ने लगा। सारा आकाश के साथ ही वो अब एक जिज्ञासु पाठक में तब्दील हो रहा था।


google image
सारा आकाश ...
कितनी बार पढ़ी , याद नहीं...
एक सामाजिक बंधन की मजबूरी बहुत ही सहजतापूर्वक,  शब्दों के माध्यम से एक रेखाचित्र सरीखी याद बनकर रह गई। या फिर यूं कहें कि उस दौर की एडजस्टमेंट का वो खाका जिस तरह से खींचा गया शायद उसकी प्रासंगिकता आज भी कहीं ना कहीं बरकरार है, बस किरदार बदल जाते हैं, हालात बदल जाते हैं और ज़िंदगी कमोबेश वही, वैसी ही नज़र आती है।



एक अरसे तक पति-पत्नी के बीच की संवादहीनता और फिर बरसों बाद उस रिश्ते का अहसास और उस रिश्ते को नए सिरे से जीने की कोशिश और फिर एक नए परिप्रेक्ष्य में उस रिश्ते का अपने वजूद के लिए संघर्ष ... और परिणति।


' हंस ' पढ़ने का मौका बहुत बाद में मिला हालांकि अज्ञानतावश उस वक्त  ' हंस ' और ' सारा आकाश ' को एक साथ रखकर नहीं देख पाया । कुछ कहानियां जरुर पढ़ीं , फिर साबका हुआ एक कहानी से  ...  'एक कहानी यह भी ' ... उसके बाद 'आपका बंटी' और फिर ' एक इंच मुस्कान ' । राजेन्द्र यादव और मन्नू भंडारी अब तक बचपन को अपने साहित्य से काफी आगे तक ले आए थे।


खासकर ' एक इंच मुस्कान ' जैसा प्रयोग, मैं (बचपन से आगे) इस तरह की साहित्यिक प्रयोगधर्मिता के बारे में सुनकर ही उसे पढ़ने को लेकर बेहद उत्साहित था, और पढ़ने के बाद ...संतुष्ट। इसके साथ ही इधर एक और डेवलपमेंट हुआ, अब मैं खुद को बंटा हुआ महसूस करता था, उसके बाद कोशिश की दोनों को ज़्यादा से ज़्यादा पढ़ने की ताकि दोनों को समझ सकूं, दोनों का पक्ष ... दोनों का लेखन ... अपनी जानकारी के हिसाब से, संदर्भित व्याख्या के साथ ग्रहण कर सकूं। सत्य क्या है, साहित्य क्या है ...  मन्नू भंडारी का लिखा पढ़ने के बाद राजेन्द्र यादव औऱ उनका लेखन दोनों मुझे वक्त वक्त पर अपनी तरफ खींचते रहे।


हम लिखते हैं क्योंकि हम महसूस करते हैं लेकिन एक लेखक के तौर पर क्या हम वो सब कुछ लिख पाते हैं जो हम महसूस करते हैं। यहां महसूस करने को जिंदगी जीने के भाव के तौर पर समझना ज्यादा सार्थक रहेगा। और यही जीवन की सार्थकता एक पाठक के तौर पर ' सारा आकाश ' में महसूस होती है।


शब्दों में छिपी भावनाएं ...
हालात बयां करते वाक्य ...
तमाम जिंदगियों को समेटे साहित्य ...
और साहित्य में बसा सच ...


शुक्रिया ... आकाश के रचयिता !!! 

एक बचपन के आसमान को किरदारों से भरने के लिए !!!

(हेमन्त वशिष्ठ)

गुरुवार, 1 जून 2017

ज़िंदगी के ज़ायके -2


( अरसे से पेंडिंग एक ज़ायका )

ज़िंदगी के ज़ायके अजब-अनूठे हैं लेकिन इस स्पेशल ज़ायके को चखने के लिए आपको एक अदद भूखे पेट के साथ बहुत सारी हिम्मत की जरूरत होगी। ये थाली बेशक देखने में साधारण सी है, लेकिन स्वाद ऐसा जो आपको ज़िंदगी भर याद रहे. . .


 लाल मिर्च. टमाटर और लहसुन की तेज़, तीखी और लाल चटख चटनी ... चटनी का ये हुलिया पढ़ने में जैसा लग रहा है हकीक़त में उससे कहीं ज़्यादा तीखा और मिर्च से भरपूर है, स्वाद ऐसा की ज़ुबान पर रखते ही आप आज से पहले खाई हुई हर तरह की लाल या हरी मिर्च को भूल जाएं। सिर्फ मिर्च का तीखापन ही नहीं, बल्कि इस चटनी का मिज़ाज आपके मिज़ाज से मेल खा जाए, इसका होना भी जरूरी है। इसके बगैर आप सिर्फ लाल मिर्च का तीखापन ही याद रख पाएंगे, पूरे स्वाद को सराहने के लिए दिल को मज़बूत करना बेहद जरूरी है। इस अहसास को आहिस्ता-आहिस्ता आप जज़्ब कर पाएं, इसलिए साथ में हैं सरसों के तेल में तले हुए करारे आलू (फ्रेंच फ्राईज़ का भारतीय संस्करण), इसे आपको खाना औऱ सराहना होगा, अगर आप मैकडॉनल्ड चाहते हैं तो वो यहां नहीं मिलेगा, लेकिन यहां जो आपको मिलेगा वो आपको यकीनन किसी और जगह नहीं मिलेगा, सिवाय आपके घर के जहां आप खुद से इस थाली को तैयार कर सकते हैं अपने स्वाद के हिसाब से। 
अगर आपको अभी भी थाली में मिर्च कम लग रही है तो अचार के लिए मसालेदार भरवां लाल-हरी मिर्च भी आपका बेसब्री से इंतज़ार कर रही है... आमतौर पर भरवां या अचार के लिए इस्तेमाल की जाने वाली मिर्च उतनी तीखी नहीं होती है, लेकिन ये अचार वाली मिर्च तीखेपन के मामले में आपको ज़रा भी निराश नहीं करती है, आप खाते जाएं और आपके दिमाग में बजती घंटियां मसालों के असर तले सब कुछ बर्दाश्त करती जाएंगी।
 आलू और प्याज़ के भरवां परांठे, जिनमें आलू और प्याज़ के मिश्रण में बारीक कटी हुई हरी मिर्च और भीतरी परत पर लाल मिर्च और लहसुन का गाढ़ा लेप। और आप किसी तरह इसे खाने के लिए राज़ी हो जाए, इसके लिए भुने हुए जीरे और नमक वाली अनलिमिटेड छाछ।  

गर्मी की भरी दोपहरी में इस तरह का तीखा और मसालेदार भोजन खाने के लिए वाकई बहुत हिम्मत चाहिए, लेकिन जब आपको ज़ोरों की भूख लगी हो तो सारी हिम्मत आप कहीं से भी जुटा लेते हैं। ठीक इसी जगह पर, जहां अभी ये ढाबा है, वहां पर पहले कोई और ढाबा या होटल था जहां के ज़ायके का बंधु कुणाल पहले आनंद उठा चुके थे। जयपुर से अजमेर के रास्ते में इस बार खाने का वो ठिकाना तो नहीं मिला लेकिन उस ठिकाने पर ये अनूठा ज़ायका जरूर मिला, जो कई महीने बीत जाने के बाद आज भी ज़ुबान को उसी तरह महसूस हो जाता है। 


मंगलवार, 16 मई 2017

मॉनसून के लिए तैयार दिल्ली !!!

पिछली बारिशों की एक शाम
मई की तपती गर्मी के बीच राजधानी दिल्ली के निवासियों के लिए कुछ राहत की फुहारें बहुत सुकून लेकर आई हैं। पूरी दिल्ली का सरकारी अमला इन दिनों दिल्ली के सीवेज़ और ड्रेनेज सिस्टम को सुधारने में जुटा है जिससे मॉनसून आने पर राजधानी के लोगों को किसी तरह की परेशानी का सामना न करना पड़े। आपसी गिले-शिकवे, आरोप-प्रत्यारोप, नारे और वादे, समर्थकों से वादाखिलाफी औऱ विरोधियों की छीछालेदर... सब कुछ मनों और टनों की मात्रा में सुबह से शाम तक रोज़ाना गटर में बहाया जा रहा है जिससे इन पदार्थों की प्रवृति के अम्लीय स्वभाव से शहर की गंदगी को साफ किया जा सके। आमतौर पर ये कवायद (कई बार देखा गया है) मॉनसून के आने पर ही शुरु की जाती है लेकिन इस बाद माहौल बदला हुआ है।

कई प्रेस कॉन्फ्रेंसों के ज़रिए पहले से ही मच्छरों की ब्रीडिंग पर काफी हद तक काबू पा लिया गया है। जगह-जगह अनशन और धरनों के माध्यम से नालों की सिल्ट, गाद साफ की जा चुकी है, नालियां चमचमा रही हैं। सिस्टम को इस हद तक साफ कर दिया गया है कि आप यमुना नदी में गिरने वाले नालों में बेझिझक स्नान का आनंद उठा सकते हैं। अत्यंत कड़े शब्दों में निंदा कर, दिल्ली के ड्रेनेज सिस्टम को भी दुरुस्त कर लिया गया है। हालांकि कई बार विभागों के आपसी समन्वय और आंकड़ों के मकड़जाल में उलझे रहने की वजह से इफेक्टिव मैनपावर और इफेक्टिव मैनआवर के बीच तालमेल गड़बड़ाया जरूर है लेकिन इस बार हालात बदले हुए नज़र आ रहे हैं। 

सेंट्रल दिल्ली निवासी मिंटो ब्रिज और तिलक ब्रिज से जब इस बारे में बात की गई तो वे मॉनसून को लेकर काफी उत्साहित नज़र आए। जलभराव का ज़िक्र उन्हें थोड़ा संजीदा कर गया, पानी से भरी सड़क जब तालाब में तब्दील हो जाती है तो उन्हें बचपन के दिन याद आ जाते हैं जब बच्चों के लिए तालाबों तक की किल्लत नहीं थी। यही कुछ उद्गार ज़खीरा पुल ने भी व्यक्त किए, कई बारिशों में बसों की साफ-सफाई का काम ज़खीरा पुल के नीचे और आस-पास तसल्लीबख्श तरीके से किया गया है। ऐसे और भी कई इलाके हैं, लेकिन सभी की बात आप तक पहुंचाते-पहुंचाते हम अगले मॉनसून तक जा पहुंचेंगे। लेकिन हां, भयंकर गर्मी और लू के थपेड़ों को सहने के बाद बारिश की बूंदों की बाट जोहते दिल्ली वालों को जगह-जगह जलभराव के बहाने प्रकृति के नज़दीक आने का अवसर सालों से दिया जा रहा है।

ट्विटर, इंस्टाग्राम औऱ फेसबुक के माध्यम से राजधानी जगमगा रही है, राजधानी दिल्ली लंदन में तब्दील हो चुकी है। जियों के अनलिमिटेड डाटा के बोझ तले फ्री वाई-फाई कसमसा रहा है। मॉनसून के लिए राजधानी को तैयार कर लेने के बाद फिलहाल गर्मी में कई इलाकों में हो रही पानी सप्लाई में दिक्कत पर काबू पाने के लिए कई खुलासों का सहारा लिया जा रहा है। पुराने रहस्यों को ज़ाहिर कर पाइपलाइनों की मरम्मत का काम किया जा रहा है। राजधानी में जगह-जगह पोल-खोल महोत्सव आयोजित किए जा रहे हैं जिससे साफ-सफाई के महत्व को जन-जन तक पहुंचाया जा सके। नालों की सफाई से निकली गाद और कीचड़ का इस्तेमाल धड़ल्ले से विरोधियों पर हमला बोलने के लिए किया जा रहा है, जिससे कालिख हो या कीचड़ कुछ भी व्यर्थ न जाने दिया जाए। 

जनता खुश है... 
राजधानी की बांछें खिल गई हैं... 
बादलों के इंतज़ार में यमुना का जल हिलोरें मार रहा है... 
झकाझक साफ सड़कें कड़ी धूप में सेल्फी ले लेकर खिलखिला रही हैं... 
दिल्ली तैयार है... 
बादल, बारिश ... मॉनसून... 
सब नै आण दे !!!



रविवार, 19 फ़रवरी 2017

मां के लिए



आसां नहीं
एक उम्र को जीना...
मां होना...
मुश्किलों को भुला देता है...
वो दुआएं होती हैं
झुर्रियां नहीं...
वक्त ...
मां की मन्नतों का भी हिसाब रखता है...
अपने हिस्से के निवाले,
परोस देती हैं अक्सर...
बच्चों की भूख का
मां पर ज़्यादा असर होता है...
नींद पूरी होती नहीं है...
जागती रहती है मां...
बच्चों का हर ख्वाब,
मां की आंखों में सबसे पहले पूरा होता है . . . 


( ये तस्वीर एक सफर के दौरान चलते-चलते खींची गई थी. . . हर मां आखिर ऐसी ही तो होती है )