गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

ये आखिर क्या है...




कुछ एबस्ट्रैक्ट सा है...
एकदम अनगढ़...
बिना किसी शेप में...
अबूझ सा...



या फिर एकदम एबसर्ड
बिना किसी मतलब के...
जबरदस्ती...एक हठ की तरह...
शायद बेतरतीब भी...
वाहियात...

किसी कूड़े की तरह...
जैसे कोई इंटेलेक्चुअल खरपतवार हो...
नकारा विचारों को समेटे...
किसी पंगु सोच का प्रतिबिंब...

या फिर...शायद वो एक इमेज है...
बहुत स्ट्रॉंग...
एकदम ब्राइट कलर्स वाली...
हाई कंट्रास्ट इमेज...
या फिर वो ऐसी ढेर सारी इमेजेज़ का...
कोलाज भर है...

कोलाज ...इमोशंस का कोलाज
जिसमें रुखे-सूखे से भाव हैं...
भाव भी नहीं ...
शायद उनकी शैडो है...छाया भर ...
या फिर मुरझाए से फूलों के जैसे...
अवशेष है...
पुरानी किताबों के पन्नों के बीच...
सालों से दबे हुए...
सीलन से भरा अतीत...
रिश्तों की सड़ांध से भरा...



जहां बहुत कुछ ब्लर है...
एकदम धुंधला...
जैसे सब कुछ पिघल गया हो...
या फिर रंग बनाने वाली प्लेट पर...
जैसे धक्का लगने से सारे रंग...
आपस से गडमड हैं...
ना तो मिल पाए...
ना ही इनकी कोई आईडेंटिटी अब बची है...


नथुनों को सनसनाते...
एक सेंट की तरह है वो शायद...
जो हवा के हर झौंके के साथ...
बहे चला आता है...
एक ऐसा सेंट...
जिससे सूंघने की क्षमता...
खत्म हो चली है...
दिमागी जुकाम की तरह...


या फिर वो एक ऐसी मेमोरी है...
जिससे कनपटी की नसें ...
तमतमा उठती है...
चमकने लगती हैं...
किसी एक वॉयलेंट स्ट्रीक की तरह...
है वो...
जो कभी आंखों में खून सी उतर आती है...

वो एक प्रेरणा भी है...
एक इंसपिरेशन...
जो अक्सर सिचुएशनल रुप धर लेती है...
कंटेंट औऱ कंटेक्क्ष्ट के हिसाब से...


या फिर इन सबसे परे...
वो एक अहसास है...
एक फीलिंग..
एकदम प्योर...
टाइमलेस...प्राइसलेस...
समस्या शायद...
... परसेप्शन है...

एक एबनॉर्मल बिहेवियर ...
लगता है अक्सर...
जो शायद मौसम के बदलाव के साथ...
ज़हन को मरीज बनाए देता है...
मेडिकल टर्मिनॉलॉजी में अनफिट...

ये एक तरह का एमनीशिया है शायद...
हां हां... ये दरअसल सिलेक्टिव एमनीशिया है...
जहां सिलेक्शन...
याद रखने और भूलने का है...
या फिर ज़िंदगी जीने ...
या ज़िंदगी जीने के ढोंग जैसा है...

ये आखिर क्या है...

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

मुस्कान वाले फ्रेम

उसके पास ...
मेरे होठों की मुस्कान थी...
औऱ मेरे पास...
उस मुस्कान को सहेजते...
अनगिनत फ्रेम...
गोल ...चौकोर... तिकोने...
रंगबिरंगे फ्रेम...
हर एक फ्रेम के साथ...
एक अदद मुस्कान...
कुछेक ब्लैक एंड व्हाइट फ्रेम भी हैं...
क्योंकि कभी-कभी गुस्से वाले फ्रेम में भी...
मैं एक मुस्कुराहट ढूंढ ही लेता था...
थोड़ा सा अटपटा लगता है...
लेकिन मेरे ज़िंदगी के फ्रेम...
किसी तस्वीर की बजाय...
शायद मुस्कुराहट के आदी हैं...
हां ! कुछ धुंधली तस्वीरों वाले फ्रेम भी हैं...
लेकिन थे भी रंग नहीं...
मुस्कान ज़्यादा मुखर है...
मेरे उकेरे कुछ स्केच भी...
गिनतीभर तस्वीरों वाले फ्रेम के साथ...
ताकते रहते हैं...
हर पल मुस्कुराती...
मेरी ज़िंदगी की अल्बम को...
जो संजोए है...
सहज मुस्कान वाले...
ढेरों पनीले और सपनीले फ्रेम...

शनिवार, 29 अगस्त 2009

कुछ खो गया है ...

कमरे में रौशनी ना के बराबर है...
बिखरे पलों को ...
सहेजती...
सन्नाटे की एक चादर....
कई महींनों की गर्द से दबी है...
...दरवाजे की झिर्रियों से...
छुप-छुपकर आते...
रौशनी के साये...
बिस्तर पर सिरहाने की तरफ...
तुम्हे तलाशते हैं...
जहां बैठना तुम्हें बहुत पसंद था...
वहीं उसी जगह...
चिड़िया के दो बच्चे...
टकटकी लगाए अब भी देखते हैं...
रोशनदान पर बने अपने उस घोंसले से...
कुछ देर शोर भी मचाते हैं...
फिर थक जाने पर चुप हो जाते हैं...
मेरी याददाश्त में तो...
तुमने एक ही दिन उनसे बातें की थी...
बस कुछ पल ही प्यार से सहलाया था ...
वो भी उसी को जीवन मान बैठे हैं...
कमरे के इसी कोने में ...
करीने से फैले जालों के बीच...
दिसम्बर का वो महीना ...
अक्सर खिलखिलाता मिल जाता है...
तुम्हारी अधखुली आंखों से झांकता हुआ...
साथ ही...
अब भी तुमको समेटे हैं...
...जनवरी...फरवरी औऱ मार्च...
जैसे कोई गीत सा हो...
हर दिन की जैसे नई धुन...
अनेकों बार पढ़ा हुआ...
अनेकों बार आंखों के सामने से गुजरा...
अजनबी सा लगा...
जैसे हर शब्द भी नया सा था...
हर बार एक नए मतलब के साथ...
एक नया अर्थ...
एक नया आयाम तलाशता...
एक जीव...
जिसकी शक्ल बहुत हद तक...
उस कमरे में अब....
बेजान पड़ी एक तस्वीर से मेल खाती है...
वहीं दीवार पर टंगा कैलेंडर...
पंखा तेज़ चलाने पर जाने क्यों...
फड़फड़ाता नहीं है...
गुस्सा होकर गिर जाता है...
औऱ फर्श पर फिर फैल जाते हैं...
अप्रैल...मई ...जून और जुलाई....
और साथ में बहुत से अल्प ....और अर्ध विराम...
टेढ़ी-मेढ़ी लिखावट वाले...
कई मुड़े-तुड़े पन्नों के साथ...
विस्मय से भरी कई शाम...
अलसाई दोपहर की कई किस्तें ...
बरबस ही ...
मुंह ताकती निकल आती हैं...
सबके पास एक प्रश्न है...
हर तारीख हर दिन...हर अंक... अब...
मानो एक प्रश्नवाचक चिन्ह सरीखा आकार है..
प्रश्न बड़ा नहीं है...
उत्तर उससे भी छोटा...लेकिन बेहद जरुरी...
कैलेंडर को वापस लगाते वक्त...
कुछेक प्रश्न...
औऱ नज़र आते हैं...
जिनपर इंतज़ार का लाल घेरा ...
कई तारीखों को एक जैसा बना देता है...
कमरे में अचानक नमी बढ़ जाती है...
लम्हों की बिखरी स्याही ...
फैल जाती है...
बहुत कुछ ...
तुम्हारी आंखों के फैले काजल की ही तरह...
मैं फिर तलाश बंद कर देता हूं...
अपने जीवन के उस एक साल की...
जो शायद ...
मुझसे ही कहीं खो गया है...

मंगलवार, 25 अगस्त 2009

चैन की सांस ...

शाम को जब पापा ऑफिस से वापस आए...
हाथ से टिफिन लेने मैं बढ़ा...
कि अचानक उन्होंने ...
ज़ोर से छींक दिया...
हाथ बढ़ते-बढ़ते रुक गए...
कदम जैसे वहीं थम गए...
मैं किसी बहाने से...
वापस कमरे में आकर बैठ गया...
पापा वहां आए...
मेरी आंखों में तैरते संशय को...
शायद वो भांप गए...
औऱ मुस्कुरा कर दूसरे कमरे में जाकर आराम करने लगे...
मैं भी जबरदस्ती व्यस्त हो गया...
शाम हो चुकी थी...
घूमने के बहाने मैं घर से निकला...
कहीं अकेले ही चले जाना चाहता था...
क़ॉलोनी में पीछे की तरफ बना पार्क...
मुझे सबसे मुफीद लगा...
कदम उसी तरफ बढ़ चले...
लेकिन जब वहां पहुंचा...
तो वो भी वहीं थी...
तब याद आया...
आज मिलना तय हुआ था...
उसकी आंखों में शिकायत थी...
औऱ होठों पर एक गुजारिश...
वो पास आई...
सांसे मिलने को ही थी...
कि मैं फिर ठिठक गया...
वो आवाज़ देती रही ...
लेकिन मैनें पीछे मुड़कर भी नहीं देखा...
सीधा घर जाकर रुका...
रात हो चली थी...
मां ने खाने के लिए आवाज़ लगाई...
खाना परोसते वक्त देखा...
मां को हल्का बुखार था...
शायद सिरदर्द भी था...
खाना उसी हालत में बनाया गया था...
लेकिन थाली जैसे मेरे हाथों से छूटते-छूटते बची...
खाना जैसे मैने बेमन से निगला...
जल्दी से हाथ धोकर...
चादर तानकर सो गया...
मां-पापा ने इसे भी बड़ी सहजता से लिया...
कुछ नहीं कहा...
बस मुस्कुरा कर कहा गुडनाइट...
सुबह मैं देर से उठा...
ताकि मेरे पास नाश्ता करने का भी वक्त ना हो...
उस दिन लंच लाना मैं जानबूझकर भूल गया...
ऑफिस पहुंचा...
जो भी मिला...
सबने बड़ी गर्मजोशी से हाथ मिलाया...
पर मैं झिझकता रहा...
एक फीकी मुस्कुराहट के साथ...
सबसे मिला...
बातें की...
और जैसे ही मौका मिला...
तुरंत जाकर साबुन से हाथ धोए...
तब कहीं चैन की सांस ली...
स्वाइन फ्लू थमने का नाम नहीं ले रहा है...
कोई भी चांस लेना ठीक नहीं है...

शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

हर रोज़ जीने की कोशिश करता हूं मैं...

नींद से बोझल आंखें लिए...
हर सुबह अपने शरीर को ...
किसी तरह ढोता हूं मैं...
रात किस कदर बीत जाती है...
...कभी पता ही नहीं चलता...
और कभी ...
बीत ही नहीं पाती...
दिनभर फिर जागता हूं...
दिनभर टुकड़ों में सोता हूं मैं...
... हां उस दिन ...
उसी रात के साथ हर पल...
हर लम्हा...
जीता हूं मैं...
...उस दिन शाम भी जल्दी हो जाती है...
फिर भी दिन को रोक कर रखने की...
जाने क्यों कोशिश करता हूं मैं...
घर जाते सूरज से मांगता हूं...
थोड़ी सी मोहलत ...
रात को करता हूं ...
ठहर कर आने की गुजारिश...
चांद से भी उस दिन...
ज़रा जल्दी आने को कहता हूं मैं...
कि रात की आहट से ही...
बंद कर लेता हूं मैं फिर आंखे...
जागते हुए फिर से...
सोने की कोशिश करता हूं मैं...
कुछ इस तरह...
हर रोज़ जीने की कोशिश करता हूं मैं...

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

कोई शीर्षक मिला ही नहीं...

मैं अपने कम्प्यूटर के मॉनीटर में मानो घुसा पड़ा था...
और वो जाने कब से चुपचाप...
सहमा हुआ सा...
मेरी कुर्सी के पास खड़ा था...
आंख उठा कर मैने देखा...
क्या बात है भाई...
धीरे से उससे पूछा...
पर वो मेरे सवालों को शायद सुन भी नहीं सका था...
दिन भर की थकान के बाद...
नाइट शिफ्ट में भी अखबारों का बोझा लिए...
वो शायद खड़ा-खड़ा ही सो रहा था...
अचानक कोई जोर से चिल्लाया...
औऱ रोबोट की तरह मुड़कर...
आवाज़ की दिशा में...
सोते हुए ही ...वो चल पड़ा था...
थोड़ी ही देर बाद...
एक डस्टबिन में उलझा...
वो फिर दिखलाई पड़ा था...
जमाने भर की गंदगी समेटता...
निर्लिप्त भाव से...
वो फिर दूसरे डस्टबिन की ओर चल पड़ा था...
तभी अचानक एक और आवाज़ का पीछा करते हुए...
वो रोबोटनुमा चाल से
फिर से सोते हुए चल दिया था...
इस बार वो हाथ में पैकेट थामे...
किसी का खाने का ऑर्डर लेकर आया था...
भूख से मेरी भी आंते कुलबुला रही थी...
औऱ खाने की महक से वो...
किसी तरह अपने को बचाए हुए था...
लेकिन इंसान था...
भूख दबा तो ली... पर छुपा नहीं पाया...
वो चुपचाप कोने में खड़ा होकर...
हंसते-मुस्कुराते...
कॉफी पीते...नूडल्स खाते...केक पर लपलपाते...
अपने ही जैसे इंसानों के झुंड को देख रहा था...
मेरी नज़र उस पर पड़ी तो वो....
झेंप सा गया...
तभी उस झुंड में से भी किसी ने उसे देखा...
दुत्कारा नहीं... पर उतना देखना भी बहुत था...
रोबोट की तरह फिर से वो उनके पास जा पहुंचा....
अब वो झूठन को समेट रहा था...
इसके बाद वो रातभर नहीं दिखा...
अगली रात भी नहीं...
किसी ने पूछने की जहमत भी नहीं उठाई...
किसी को कोई फर्क भी नहीं पड़ता...
मैं भी कुछ पल सोचने के बाद ...
फिर से अपने कम्प्यूटर के मॉनीटर में जा घुसा...
तभी लगा जैसे कोई मुझे बहुत करीब से देख रहा है...
सिर उठाकर मैने देखा...
बस चेहरा बदले...
आज वो दूसरा ऑफिस ब्वॉय था...
जो उसी वर्दी में...
उसी मुस्कुराहट को ओढ़े...
वो अपने काम में जुटा था...
बिल्कुल एक रोबोट की तरह...

बुधवार, 12 अगस्त 2009

तुम नहीं थी... पर तुम सही थी...

बुझते कशों के बीच...

याद आई वो हर बात...

जो तुमने हर कश के बीच...

कही नहीं पर ...सही थी...

हां...तुम नहीं थी... पर तुम सही थी...

जब दम घोंटने लगे अपने ही विचार...

और घुटनों के बीच सिर दिए...

जागते रहे सारी रात...

खुद में ही सिमटे... सिकुड़े से ...

सिसकते रहे... हर बरसात...

तुम्हारा दर्द...तुम्हारी शिकायतें...

सब यूहीं अनकही थी...

हां...तुम नहीं थी... पर तुम सही थी...

तेरे मन की सिलवटें...

जाने कब मेरी हथेली पर रेखाएं बन चलीं थी...

वो रेखाएं भी छुपाकर...

तुम अक्सर साथ चली थी...

हां...तुम नहीं थी... पर तुम सही थी...

पैबंद सरीखा वजूद कुछ तो संवरे...

तेरी कशिश ने कोशिश भी बहुत की थी...

हार मान ली हसरतों ने जब...

कबाड़ सरीखी जिंदगी हो चली थी...

हां...तुम नहीं थी... पर तुम सही थी...

याद है ...

वो पहली मुलाकात की मुस्कुराहट...

सुबह जागने से पहले तुम...

यूंही मुस्कुराती मिली थी...

हम जागे तब तक तुम जा चुकी थी...

फिर से मिलने की उम्मीद... बाकी अभी थी...

हां...तुम नहीं थी... पर तुम सही थी...

मंगलवार, 11 अगस्त 2009

दो हज़ार में घर का खर्च कैसे चलाउं...

दो हज़ार रुपए में क्या होता है...
ये सुनकर मैं ठिठका...
आवाज़ जानी -पहचानी लगी तो ...
धीरे से पलटा...
वो खड़ी थीं... अपनी सास के साथ...
अपने मोहल्ले के भोलू की ब्याहता...
शादी के करीब ७
साल बाद...
अपने दो बच्चों का हाथ थामे...
वही सवाल फिर से किया अपनी सास से...
बताओ... तो ... दो हजार रुपए में भला क्या होता है...
आवाज़ में शिकायत भी थी... दर्द भी...
और एक मजबूरी भी...
सास ने भी उसी बेचारगी से उसे देखा...
कहती भी क्या...
वो फिर बोली...
दो हज़ार में घर का खर्च कैसे चलाउं...
बच्चों के स्कूल की फीस...
बिजली-पानी का बिल...
घर में रोज़ चूल्हा कैसे जलाउं...
कैसे निभाउं ननद बिन्नो की रिश्तेदारी...
कैसे उसे नेग की साड़ी भिजवाउं...
वो दारु पीकर आता है...
तीन दिन रहता है बीमार...
चार दिन दिहाड़ी पर जाता है...
कैसे उसकी दवा-दारु करवाउं...
दो हज़ार में घर का खर्च कैसे चलाउं...
बारिश में टपकती है घर की छत...
दरवाज़े की कुंडी तक नहीं है...
जब छुपाने को कुछ है ही नहीं...
क्यों कमरे की टूटी दीवार की मरम्मत करवाउं...
दो हज़ार में घर का खर्च कैसे चलाउं...
मां... आंखों से तो तुझे भी नहीं दिखता है...
डॉक्टर ने कहा है ऑपरेशन होगा...
तू ही बता...
कैसे शहर में तेरा इलाज करवाउं...
गिरवी रखे हैं खेत...
जब से की है बिन्नों की शादी...
कर्जा अब तक उतरा नहीं है...
खेत कैसे वापस छुड़ाउं...
दो हज़ार में घर का खर्च कैसे चलाउं...
वो कहता है घर छोड़ कर चली जा...
तू ही बता मां...
इन दोनों बच्चों को लेकर अब मैं कहां जाउं...
तू ही बता मां...
दो हज़ार में घर का खर्च कैसे चलाउं...
अब दोनों के आंसू मुझसे देखे नहीं गए...
जेब में हाथ डालकर आगे बढ़ गया...
आखिर २५०० की अपनी चकाचक डेनिम...
मैं कब तक उनसे छुपाउं...
बाकी का हिसाब जो लगाता...
तो शायद उनके तीन-चार महीने का बजट हो जाता...
कैसे मैं उनसे नज़रें मिलाउं...
सच ही तो कहती थी वो...
दो हज़ार में घर का खर्च कैसे चलाउं...
दो हज़ार में घर का खर्च कैसे चलाउं...

बुधवार, 5 अगस्त 2009

जब तुम नहीं थी...

आज सुबह जब खुली मेरी आंख...
तो तुम नहीं थी...
नहीं मिला बिस्तर के सिरहाने
रखा...
वो चाय का कप...
कसमसा कर रह गया मेरा हाथ...
जाने क्यूं तुम नहीं थी...
उनींदी आंखों को मसलती रह गई ...
तेरी जुल्फों को तलाशती उंगलियां...
जब बिस्तर को सहेजते वक्त भी नहीं मिला तुम्हारा साथ...
क्योंकि तुम नहीं थी...
गीला-गीला सा मिला तकिया...
खारा -खारा सा लगा सुबह की हवा का स्वाद
बस तुम नहीं थी...
सिरहाने रखी डायरी में भी...
फटा हुआ मिला वो पन्ना...
जिस पर दर्ज थी तुमसे आखिरी मुलाकात...
हर पन्ने पर भीगे मिले लफ्ज़...
तन्हा मिला हर लम्हा हर जज़्बात...
बस...तुम नहीं थी...
खुली थी चुपचाप खड़ी अलमारी...
बिखरे कपड़ों की तहों में...
उलझे मिले कई संवाद...
बस तुम नहीं थी...
बाल्कनी में खामोश बैठी थी ...
तुम्हारे बिना... पिछले हफ्ते खरीदी कुर्सी...
बाट जोह रही थी...
मेरे इंतज़ार के साथ...
बस तुम नहीं थी...
सुबह होने का अहसास कराती....
नहीं थी ओस की बूंदों सी जगमगाती तुम्हारी कोई बात...
तुम्हारी शरारती नज़रों को ढूंढते रहे अहसास....
पर ...तुम नहीं थी...
रह रहकर गूंजती रही तेरी खनखनाती हंसी...
तेरे ख्याल से जब करनी चाही बात...
होठों में उलझ कर रह गए अल्फाज़...
हां ...तुम नहीं थी...
बस है तुम्हारी याद...
बस है तुम्हारी याद...

रविवार, 26 जुलाई 2009

बाबा के दर्शन...औऱ घर वापसी


सुबह जब आंख खुली तो एक अरसे बाद या कुछ यूं कहें कि बहुत अच्छा महसूस हुआ... ये सुबह वाकई सुबह की तरह थी... नीला आसमान... सूरज के आने के आभास से शर्माया सा... देख कर वाकई ऐसा लगा कि ... ये नया रंग कौन सा है... खैर... इसके बाद नज़र पड़ी चारपाई की बगल में रखी मेज़ पर... वहां रखी थी कोल्डड्रिंक की एक खाली बोतल... रात का सफर फिर से दिमाग में ताज़ा होने लगा तो याद आया कि रास्ते में एक दुकानवाले को कहा था माज़ा दे दो... तो उसने एक बोतल थमा दी... अब ना तो लाइट थी और ना ही कोई दूसरी रोशनी... लिहाजा चुपचाप गटागट पी भी गए... स्वाद भी कुछ जाना-पहचाना सा ही लगा । उसी बोतल को जब रोशनी में देखा तो उस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था... जयंती कोला... Be Indian Buy Indian . आसपास पूछा तो पता चला कि भई यहां तो यही ब्रांड मिलता है। हम तीनों भाई एक दूसरे की शक्लें देखकर हंस पड़े और तुरंत उठ खड़े हुए।
सुबह-सुबह का वक्त था लिहाजा दिशा-मैदान के लिए निकल पड़े । एक अर्सा हो चला था इस तरह खेतों की तरफ मुंह उठाए चले... सब कुछ एकदम परफेक्ट था... आसमान जितना नीला होना चाहिए उतना ही नीला और साफ था... ना कम ना ज़्यादा... हरियाली भी एकदम सुकून देने वाली फिर चाहे वो मन हो या आंखें... दूर-दूर तक नज़र आते खेत...और उन खेतों का सदुपयोग करते लोग। हम भी उन्हीं में जाकर शामिल हो गए।
सुबह की हमारी इस सैर में करीब एक घंटा लग गया। अब हम जल्दी से तैयार होकर निकल पड़े। करीब डेढ घंटे का सफर था और रास्ता बेहद खूबसूरत... कहने को राजस्थान लेकिन हरियाली जैसे दिल को छू गई। गांव की सुबह क्या होती है...इस सफर ने एक बार फिर से वो यादें ताज़ा कर दीं।
खाटू धाम जाते हुए रास्ते में पड़ता है रींगस...जो सबसे पास का रेलवे स्टेशन भी है। रींगस से जब हम खाटू धाम की तरफ निकले तो रास्ते में अनेकों श्रद्धालु मिले जो पैदल ही बाबा के दर्शनार्थ खाटू धाम की तरफ बढ़े चले जा रहे थे। वक्त तो सुबह का था लेकिन धूप और गर्मी पूरे जोरों पर थी... ऐसे में नंगे पांव तपती सड़क पर चलना... ये सिर्फ भक्त और भगवान ही समझ सकते हैं। ...
जैसे-जैसे हम खाटू धाम के नज़दीक पहुंच रहे थे... धड़कन की रफ्तार बढ़ने लगी थी... औऱ जैसे ही खाटू धाम के द्वार पहुंचे... नतमस्तक हो गए। आस्था का अहसास...वाकई शब्दों में उसका वर्णन संभव नहीं है। इंसान अच्छे-बुरे सभी पलों ...सभी कर्मों को बरबस ही याद कर उठता है... और फिर ईश्वर से मांगता है इंसाफ... ऐसा इंसाफ जिसमें फैसला सुनाने से पहले उसकी जिंदगी के सभी पहलुओं को ध्यान में रखा जाए... और यकीन मानिए ...ऐसा होता भी है।
खाटू नगरी है श्याम बाबा की... भीमपुत्र घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक की... जिन्हें खुद भगवान श्रीकृष्ण ने कहा था कि कलियुग में उन्हें मेरे नाम यानि श्याम नाम से पूजा जाएगा। धर्म की रक्षा के लिए अपने शीश का दान करने वाले वीर बर्बरीक...यानि श्याम बाबा को शीश के दानी भी कहा जाता है। वीर बर्बरीक ने हारे का सहारा बनने की प्रतिज्ञा की थी... औऱ जब वो अपनी इस शपथ के साथ महाभारत के युद्ध में पहुंचे को उस वक्त पलड़ा पांडवों का भारी था... श्रीकृष्ण ये अच्छी तरह जानते थे कि अगर वीर बर्बरीक मैदान में उतरे तो फिर पांडवों की हार निश्चित है... लिहाजा धर्म की रक्षा के लिए उन्होंने वीर बर्बरीक से शीश का दान मांगा जो उन्हें मिला भी... और साथ ही वीर बर्बरीक को मिला श्याम नाम...
इन्हीं श्याम बाबा की नगरी में जब एक अर्से बाद मैं पहुंचा ...सब कुछ जाना-पहचाना सा ही लगा। जल्दी से हम तीनों भाई श्याम कुंड पहुंचे... यहां भी भक्तों का तांता लगा हुआ था... बच्चे तो बच्चे बड़े भी श्याम कुंड में अठखेलियां कर रहे थे... गर्मी का मौसम...उस पर कुंड का शीतल जल... औऱ भक्तिमय माहौल...रह-रहकर लगते जयकारे....निकलने का मन ही नहीं कर रहा था... लेकिन वापस भी तो लौटना था...स्नान के बाद हम सीधा पहुंचे श्याम बाबा के दर्शनार्थ... कहते हैं कि मेले के दौरान खाटू में पग धरने भर जगह भी नहीं मिलती है... जब इस वक्त इतनी भीड़ थी... तो मेले के वक्त का अंदाजा हमें खुद ही लग गया। बच्चे...बूढ़े...जवान... सभी के होठों पर श्याम नाम...
आराम से बाबा के दर्शन हुए... इतनी देर से बुलाने के लिए ज़रा सी शिकायत औऱ फिर से जल्द बुलाने की कामना ... भक्त और भगवान के बीच इतना संवाद अक्सर बिना किसी औपचारिकता के हो जाया करता है... दर्शन...फरियाद औऱ परिक्रमा करते हुए हम सभी मंदिर से बाहर आ गए ...जहां से हम पुराने श्याम मंदिर की ओऱ बढ़ चले। यहां भी इत्मिनान से बाबा के दर्शन हुए।
दर्शन के बाद हम बाज़ार में आ गए औऱ घर ले जाने के लिए वो सब चीज़े ढूंढने लगे जिनकी लिस्ट घर से निकलते वक्त मुंहजुबानी थमाई गई थी। लॉकेट...कड़ा...तस्वीरें...किताबें... भजनों की सीडी... सब कुछ हमने जल्दी...जल्दी ढूंढा। एक बार फिर से जाकर दुकान से प्रसाद भी लिया।
मन तो कहां करता है लेकिन घर भी लौटना था... लिहाजा एक बार फिर से हम सभी बाइक्स पर सवार हुए और चल पड़े... जल्दी बुलाने की फरियाद और जल्द लौटने के वायदे के साथ... श्याम बाबा का आशीर्वाद लिए हम बढ़ चले।
भाई के मित्र को वापस उसके गांव जुगलपुरा छोड़कर हम लोग अपने रास्ते बढ़ चले। औऱ हां... खाना तो जुगलपुरा में खाना ही पड़ा। हमनें कितना कहा कि अब देर हो रही हो...लेकिन खाने के लिए कभी देर नहीं होती। ...खैर... वापसी का सफऱ भी इतना आसान ना था... धूप कड़ाके की थी... औऱ सूरज एकदम सिर पर...ऊपर से बेरहम लू के थपेड़े।

रास्ते में वही अरावली की पहाड़ियां मिली जो रात के वक्त बेहद खूबसूरत नज़र आ रही थी... लेकिन इतनी कड़ी धूप में वो भी तन्हा ...बेजान नज़र आईं... दिन की रोशनी में उनका अकेलापन साफ नज़र आया। हां कई जगह इन्सानों ने उनका ये अकेलापन मिटाने की कोशिश जरुरन उससे दर्द कम नहीं हुआ...बल्कि और बेपर्दा हो गया। इतना ही नहीं अरावली की इन पहाड़ियों को साक्षर बनाने के लिए जगह-जगह लोगों ने विज्ञापन लगाकर कोशिश भी की ...लेकिन इससे अकेलापन तो दूर नहीं हुआ अलबत्ता खूबसूरती पर पैबंद जरुर लग गए।

गर्मी पूरे शबाब पर थी... लिहाज़ा पूरी सावधानी बरतते हुए हम भी आगे बढ़ते रहे। जगह-जगह रुककर पानी पीते रहे... आराम करते रहे। घर पहुंचने से पहले मामा के गांव भी जाना था और जब हम वहां पहुंचे तो नज़ारा देखने लायक था। बचपन की याद ताज़ा हो आई... घर में बच्चे ही बच्चे... नाना-नानी... मामा-मामी और ढेर सारी मौसियां...सभी से मिलकर बहुत खुशी हुई...शाम होती जा रही थी...हम फिर से निकल पड़े...दिल्ली अभी दूर थी।

हालांकि अब गर्मी से परेशान होने की जरुरत नहीं थी... तेज़ी से अंधेरा होता जा रहा था...पर अब मैं आराम से बाइक चला रहा था अंधेरे की परवाह किए बगैर। भाई को गुड़गांव छोड़ा और फिर से बाइक दौड़ा दी दिल्ली की तरफ... सफर इतना लंबा हो चला था कि अहसास जैसे खत्म हो गया था... बस अब जल्दी थी जल्द से जल्द घर पहुंचने की... इंतज़ार वहां भी लंबा हो चला था... अहसास तब जागा जब घर पहुंचे... एक इत्मीनान सबके चेहरे पर था... औऱ एक विश्वास भी ...

गुरुवार, 9 जुलाई 2009

बाबा का बुलावा ...

रात अपनी रफ़्तार से बढ़ रही थी... और हमारी रफ़्तार पर सड़क कभी-कभार जैसे ब्रेक से लगा देती थी । रास्ता एकदम अनजान... और रात के इस पहर एकदम सुनसान...वीरान... अंधेरी सड़क पर सावधानी से आगे बढ़ते रोशनी के दो बिंदु... औऱ सन्नाटे में सबको अपने गुजरने का अहसास कराती थकी-हारी दो बाइक्स औऱ उन पर आढ़े-टेढ़े होकर बैठे तीन जवान , यानि मैं औऱ मेरे दो भाई ।

रात इतनी खूबसूरत भी हो सकती है... ये शायद अब मैं भूल चुका था...लेकिन इस रात के सफर ने फिर से वो यादें ताज़ा कर दीं जब रात-रात भर गांव में सोने की बजाय रात को निहारा करते थे। चांदनी में दमकता...स्याह आसमान... औऱ करीने से सजी तारों की झालरें । शहरवालों के लिए तो तारें देखना अब शायद दिन में ही मुमकिन है...क्योंकि रातों को आजकल शहरों में तारे भी सोने चले जाते हैं। एक अरसा हुआ जब दिल्ली में रात में आसमान में टिमटिमाते हुए तारे नज़र आते थे। बहुत संभव है कि कहीं दिखलाई भी पड़ते हों...लेकिन हमारे हिस्से की दिल्ली में तो तारे नज़र ही नहीं आते। इतने दिन बाद तारों को देखकर बहुत अच्छा लगा। उन्होंने भी टिमटिमाकर ...मुस्कुराते हुए अपनी खुशी जाहिर की... आशीर्वाद दिया... और शिकायत भी की कि क्यों मैं उनसे मिलने का वक्त नहीं निकाल पाता हूं ? खैर...मैने समझाया... शिकायत अपनी जगह जायज़ है और मेरी मजबूरी भी।

इतने में देखा चांद कहीं छिप गया है... बादलों की गुंजाइश अभी तो नहीं थी... आगे बढ़े तो मालूम पड़ा कि अब हम अरावली की पहाड़ियों के बीच से गुजर रहे थे और चांद हमसे आंखमिचौली खेलने के मूड में था। प्रकृति से ये निकटता मानो वरदान हो। एक जगह बीच रास्ते में बाइक रोकी तो पाया कि रात में शांत दिखने वाले इलाके रातभर जागते भी है। रात में जागने वाले जानवरों की अपनी जमात है जो अपने जगे होने का अहसास बखूबी कराती रहती है (हां इतना जरुर है कि जंगल के ये जानवर शहरी जानवरों से कम खतरनाक होते हैं, वैसे भी जंगल अगर जागता है तो अपनी जरुरत के चलते और शहर अक्सर हसरतों के चलते जागा करते हैं, जरुरत और हसरत का ये फर्क ही इसान को जानवर और जानवरों को इंसान बना देता है)। बहरहाल टेढ़े-मेढ़े रास्तों के बीच हम आगे बढ़ते रहे... और इस बीच जाने कितने ख्वाब मैं देखता गया... खुली आंखों से कितने ख्वाब मैं जहां-तहां अधूरे छोड़ता गय़ा।

तभी मुझसे आगे चलते भाई की बाइक जोर से उछली और वापस सड़क पर आकर फिर से उसी रफ़्तार से दौड़ने लगी। लेकिन मैने कुछ सैकेंड पहले ही आंखे मूंदने का मन बनाया था लिहाज़ा ज़ोर का झटका लगा भी उतनी ही ज़ोर से, लेकिन गिरने से बाल-बाल बच गए । आंखें एकदम से खुल सी गईं तो सफर का सुरुर(थकावट पढ़ें) भी हल्का (माने ताज़ा) हो गया और समय देखा तो रात के 12 बज चुके थे। तब याद आया कि इस सफर की शुरुआत शाम के चार बजे दिल्ली से हुई थी और 8 घंटे बाद भी हम बाइक चलाए जा रहे थे।

दरअसल हुआ यूं कि ऑफिस से दो दिन की छुट्टी थी, एक दोस्त के साथ जम्मू जाने का कार्यक्रम तय हुआ... लिहाजा तीन दिन की छुट्टी और ले ली गई। लेकिन जम्मू जाने से एक दिन पहले छोटा भाई आकर कहता है कि खाटू श्यामजी चलना है क्या ? इस तरह जम्मू जाना कैंसिल हुआ और बाबा के बुलावे पर खाटू धाम निकल पड़े। गुड़गांव से एक और भाई ने साथ जाना था तो उसे रास्ते से लेते हुए हम चलते गए। हालांकि रात के वक्त दिल्ली-जयपुर हाइवे पर चलने-चलाने का मेरा अनुभव नहीं था लेकिन दोनों भाइयों के ज़ोर देने पर कहीं रुकने की बजाय हम चलते रहे। हाइवे के साथ बसे गांव सो चुके थे लेकिन रात के सफर के मुसाफिर सुबह को तलाशते बढ़े जा रहे थे...चले जा रहे थे। दिल्ली की चकाचौंध से अलग बाइक चलाने का यहां अपना मज़ा था लेकिन रात में चौंधिया देने वाली ट्रक की लाइटों से थोड़ी दिक्कत जरुर हुई लेकिन श्याम नाम के सहारे रास्ता खुद-ब-खुद आसान होता गया।

इस सफर में खाटू धाम हमें सुबह जाना था, उससे पहले हमें रात भर(जितनी भी रात हमारे गांव पहुंचने तक बचेगी) एक गांव जुगलपुरा में रुकना था। यहां मेरे भाई के एक मित्र का घर है जो रात 10 बजे से लगातार फोन कर हमारी लोकेशन पूछ रहे थे कि आखिर कब हम पहुंचेंगे। रात एक बजे वो अपने गांव से 3-4 किलोमीटर दूर एक दूसरे गांव के सुनसान पड़े चौक पर हमारा इंतज़ार कर रहे थे। 3-4 किलोमीटर की ये दूरी... रेल के दो फाटक... और कुछ भौंकते कुत्तों को पीछे छोड़ते हुए आखिरकार हम जुगलपुरा पहुंच ही गए।

पूरा गांव सो रहा था... लेकिन मेरे भाई के मित्र के परिवार का एक-एक सदस्य जाग रहा था। सबको इंतज़ार था दिल्ली-गुड़गांव से चले तीन लड़कों का जिनमें से एक उनके बेटे का दोस्त है और बाकी दो के बारे में वो जानते भी नहीं है। जिनसे ना तो वो कभी मिले हैं और शायद दोबारा कब मिलना हो...ये भी पता नहीं। रात डेढ़ बजे कोल्ड ड्रिंक्स के साथ हल्का-फुल्का नाश्ता... औऱ कुछ देर के आराम के बाद रात का खाना । ऐसा अतिथि सत्कार मैने राजस्थान में ही देखा है।

उनके घर में मरम्मत का काम चल रहा था लिहाजा चारपाइयां घर के बाहर चबूतरे पर बिछा दी गईं ... बिस्तर पर पड़ते ही नींद आ गई ...लेकिन पूरी तरह नींद के आगोश में जाने से पहले दिन भर का सफर आखों के आगे ताज़ा हो उठा... थकावट जरुर थी लेकिन गांव की मिट्टी की खुशबू से ही रुह को आराम मिलना शुरु हो जाता है। ज़हन में सुबह जल्दी उठने का अलार्म अभी से बजने लगा था... बाबा के दर्शन को अब इंतज़ार नहीं हो रहा था...बस रात भऱ का फासला...सुबह तक का इंतज़ार...

आज़ादपुर मंडी की बोरियों से एक मुलाक़ात


आज सुबह जब उठा तो लगा कि जैसे पूरे घर को खबर है... आज मेरी छुट्टी है... आदतन दो कप चाय पीने के बाद जब आंखें खुली तो 11 बज चुके थे ...अरे हां ...वाकई मेरी छुट्टी है... माता जी ने जैसे ही देखा कि मैंने उठते ही अखबार ढूंढना शुरु कर दिया है , उन्होंने फौरन आज़ादपुर सब्ज़ी मंडी जाने का फरमान सुना दिया (वैसे एक दिन पहले ही मुझे ये बता दिया गया था कि सुबह-सुबह ही आज़ादपुर मंडी जाना है और आम का अचार डालने के लिए आंम्बी ; कच्चे आम ; लेने जाना है) ।

मैने भी आज़ादपुर ना जाने के सौ बहानों में से क्रमश: एक-एक कर सभी सुनाने शुरु कर दिए...लेकिन ये सभी पुराने हो चुके थे। माता जी पर मेरे किसी भी बहाने का कोई असर ना देख ...मैने भी फिर से आज़ादपुर जाने का मन बना लिया। दरअसल छुट्टी (मेरी) के दिन... इतने ट्रैफिक (गाड़ियों के) से जूझते हुए... वहां पहुंचना जहां का ट्रैफिक (इंसानों का) बर्दाश्त करना शायद अब बर्दाश्त के भी बाहर हो चला है।

यहां बोरियों को लादे इतने इंसान नज़र आते हैं कि खुद इंसान भी बोरी सरीखा लगने लगता है। मानो हर आदमी एक बोरी है... बड़ी बोरी...छोटी बोरी...मोटी बोरी...हड्डियों के ढांचे वाली बोरी... पसीने से लथपथ बोरी...सोने की मोटी चेन डाले 150 किलो की बोरी... कुछ बोरियों के हाथ में डंडा भी था... आवारा पशुओं को खदेड़ने के लिए ... जिनकी परिभाषा हर बोरी के लिए अलग-अलग होती है।

खैर... मेट्रो के खंबों के बगल से गुजरती सड़क पर ट्रैफिक से बचते-बचाते... आज़ादपुर रेडलाइट पर जबरदस्त ट्रैफिक डायवर्ज़न का पीछा करते करते ... वहीं फ्लाइओवर पर लगे जाम में दूसरे वाहनों के साथ सरकते... सावन में गर्मी औऱ उमस का लुत्फ उठाते किसी तरह आज़ादपुर मंडी जा पहुंचे। हर तरफ वही चित-परिचित बोरियां नज़र आईं। मुस्कुराहटों का आदान-प्रदान हुआ। जानते हैं बोरियों के साथ यही सबसे अच्छी बात होती है... आप धीरे-धीरे बोरी की तरह जीना सीख जाते हैं... हां, ये अलग बात है कि कभी आप आलू के तेवर में जीते हैं... कभी मिर्च सरीखे तो कभी दशहरी के समान...

आज यहां ज़्यादातर बोरियां ...रामकेला... थीं, यानि मंडी के जिस हिस्से में जाना हुआ वहां आम्बी की जो किस्म सबसे ज़्यादा थी वो थी रामकेला। हर बोरी रामकेला-रामकेला जप रही थी... 120 रुपए धड़ी(पांच किलो) से लेकर 160 रुपए धड़ी तक ...आप रामकेला आंम्बी खरीद सकते थे। कुछेक दुकानदार बोरियों को देखकर लग रहा था कि जैसे पिछली खरीद उन्होंने हरी मिर्चों की थी...और उसमें भी अलग से लाल मिर्च छिड़क रखी थी। आप साहब होंगे अपने घर के ...ये तो आज़ादपुर मंडी है साहब ...यहां सब बोरी है... सब माल पे डिपेन्ड करता है। ... अरे भाई लेकिन पांच किलो हरी मिर्च का मैं क्या करुंगा... मुझे तो घर के लिए आधा किलो ही चाहिए... किलो-आधा किलो की बात मत करो...लेना है तो धड़ी उठाओ ...वरना आगे बढ़ जाओ... आगे आपको बढ़ना ही पड़ेगा, क्यों कि रास्ता ही ऐसा है...कोई दो बोरी एक साथ नहीं निकल सकती हैं... एक बोरी को रुक कर साइड देनी ही पड़ती है।

किसी तरह हमनें भी 155 रुपए धड़ी में डील पक्की की। तौल का पक्का भरोसा तो दिया ही गया साथ में कच्चे आम के निहायती कच्चे होने का भी यकीन दिला दिया गया (और भरोसा वाकई में कायम रहा)। दो बैग में बीस किलो आम्बी भर ली गई तभी एक बोरी हमारी तरफ बढ़ी। उस बोरी ने आम्बी काटने के लिए पूछा... औऱ रेट बताया प्रति किलो दो रुपए। किसी तरह तीस रुपए पर बात तय की गई... औऱ वो बोरी धड़ाधड़ आम्बी काटने में लग गई...हां ये जरुर कहा कि इस बीच अगर कोई आ जाता है तो उसे हम डिस्काउंट वाला भाव ना बता दें।

थोड़ी ही देर में उस बोरी ने सारी आंम्बियां काटकर सामने ढेर लगा दिया। बिजली का गति से चलते हाथ... उंगलियों को बचाते हुए वो गजब की टेक्नीक के साथ अपने काम को अंजाम दे रहा था। इस बीच जाने मुझे क्या सूझा...मैने मोबाइल निकाला और उसकी तस्वीरें लेने लगा। बोरी की आंखें चमक उठी... कारण मुझे भी समझ नहीं आया। मेहनताने (पूरे तीस रुपए) से ज़्यादा वो तस्वीरों में खुश नज़र आया।

अब घर जाने का वक्त हो चला था... लिहाज़ा उन सभी बोरियों को छोड़कर जल्दी से वापस हो लिया। क्योंकि ज़्यादा देर यहां रुकता हूं तो मेरा दम घुटने लगता है आखिर कोई कब तक मैली-कुचैली बोरियों को बर्दाश्त कर सकता है।

शनिवार, 27 जून 2009

हम ऐसे जीते हैं...

मेरे दफ़्तर में सीढ़ियां नहीं हैं...
लोग लिफ्ट से चढ़ते हैं...
हमारी इस दुनिया में ...
ताज़ी हवा के लिए खिड़कियां नहीं है...
हम शीशे के पार...
पेड़ों के पत्तों को हिलते हुए देखते हैं...
शीशे के पार देखकर...
सर्दियों में धूप सेकते हैं...
पहली बरसात के बाद,
माटी की सौंधी महक को...
शीशे के पार महसूस करते हैं...
लोगों को भीगते हुए देखते हैं...
तेज़ हवा के झौंकों को देखकर...
डरते हैं...कांपते हैं...
अपने शरीर पर...
आंधी में उड़ते रेत की जमती परतों से झल्लाते हैं...
इतनी उंचाई पर सामने से आते बादलों को देखकर...
अक्सर मेंढ़क जैसा बर्ताव भी करते हैं...
डैने फैलाकर आसमान में मुंह चिढ़ाती घूमती चीलों से जलते हैं...
फिर उसी उंचाई पर दिखता है हवा में लटका एक इंसान...
जो उन शीशों को साफ करता रहता है...
ताकि हम बाहर की दुनिया को देखते रहें...जीते रहें...
जब-जब उससे आंखें मिलती हैं...
हम वापस अपनी सीट पर आकर बैठ जाते हैं...
हम वापस अपनी सीट पर आकर बैठ जाते हैं...

शनिवार, 20 जून 2009

विडंबना

(एक पुरानी रचना है, आज भी सोचने पर अक्सर मजबूर कर देती है)...

बाल बेतरतीब थे...
अटपटी सी चाल चलते,
रास्ते पर बिखरे कंकड़ों को ठोकर मारते,
अनमने से यूंही,
जाने किस उधेड़बुन में,
बेतहाशा... पागलों की तरह,
अपने आप से बातें करते,
हम निरंतर चले जा रहे थे...
कि अचानक अपने खुद के कदम नापती,
मेरी आंखों की पुतलियां,
विस्मय से फटने को आतुर हो उठी,
एक अजीब सी घुटन,
मेरे विचारों का दम घोंटने लगी,
मुझे लगा कि मेरा व्यक्तित्व टूटकर,
कांच की किरचों के समान ,
मेरे भीतर,
मुझे कहीं लहुलुहान कर रहा है,
अचानक अपनी ही नज़रों से गिर जाने का दंश,
पल-प्रतिपल टीसने लगा,
औऱ डबडबा आई आंखों में गहराते शून्य के बीच मैने देखा,
चीथड़ों में तन ढके एक नंग-धड़ंग बालक,
जो अभी हाल-फिलहाल में चलना सीखा होगा,
अपने नेत्रहीन-ढांचामय पिता का हाथ थामे,
ठेले पर सब्ज़ियां बेचकर,
अपने हिस्से के अभावों से जूझ रहा था,
और शर्मसार मैं...
पढ़ाई, खेल और करियर के नाम पर ,
जन्म से ही मां-बाप का खून चूसकर बड़ा हुआ,
जब उन्होंने जेबखर्च बढ़ाने से इनकार कर दिया,
तो जी भरकर उन्हें कोसने के बाद,
मूड ठीक करने के लिए,
नुक्कड़ के पनवाड़ी से उधार लेकर,
एक मशहूर पब की तरफ,
अंधाधुंध दौड़े चला जा रहा था...

सोमवार, 15 जून 2009

एक मजदूर (मजबूर) की मौत

" कैलाश को अस्पताल में दाखिला तो मिला लेकिन इलाज के लिए नहीं, पोस्टमॉर्टम के लिए" जैसे ही एक साथी रिपोर्टर से पीटीसी की ये चंद लाइनें सुनी... सभी एक दम से उछल पड़े... वाह गुरु ! खबर बेच दी आपने... वर्ना किसको पड़ी है कि एक मज़दूर की मौत की खबर चलाए वो भी एक सरकारी अस्पताल के बाहर...भले ही वो इलाज के इंतज़ार में तड़प-तड़प कर मर जाए... एकदम ही डाउनमार्केट खबर थी...लेकिन हां ... अब इसको ताना जा सकता है।
लेकिन खबर तो थी... कैलाश को तीन-तीन सरकारी अस्पताल ले जाया गया लेकिन बचाया नहीं जा सका। कहीं इलाज की सुविधा नहीं ...तो कहीं इलाज करने का वक्त ही नहीं था... अब कैलाश भी कितना इंतज़ार करता... एक मज़दूर कितना भी सख्त जान हो लेकिन बिना इलाज बच पाना उसके लिए भी मुमकिन नहीं ।
जब खबर चली तो सवाल-जवाब भी हुए... तुरंत जांच का आदेश भी आया... एक मज़दूर की मौत के मामले की जांच... लेकिन एक दिन बाद ही बयान भी आया कि इस मामले में सरकारी अस्पतालों की तरफ से कोई लापरवाही नहीं बरती गई। ठीक है हम मान लेते हैं कि लापरवाही नहीं बरती गई लेकिन फिर कौन है इस मज़दूर की मौत का जिम्मेदार ?
मौत पर ये सवाल शायद ज़िंदगी से भी बड़ा हो गया है ... नहीं तो ' कैलाश ' खबर नहीं बनता... वक्त पर इलाज हो गया होता तो एक गुमनाम मज़दूर सुर्खियों में भी नहीं आता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, कैलाश इलाज का इंतज़ार ही करता रह गया... अस्पताल के बाहर स्ट्रेचर पर पड़ी उसकी लाश को अस्पताल में दाखिला जरुर मिला ... हां अगर कैलाश को वक्त रहते एडमिट कर लिया जाता तो उसका इलाज होता पोस्टमॉर्टम नहीं...

शुक्रवार, 12 जून 2009

कवि की कल्पना... पार्ट-2 (मोहब्बत की मेट्रो)

(मोहब्बत की मेट्रो...ये नाम दिया बंधु जिंदल साहब ने। दरअसल कुछ महीने पहले मैं रुटीन के मुताबिक ऑफिस रहा था, डीयू से मेट्रो पकड़ी। कश्मीरी गेट पहुंचा तो भीड़ का रेला ट्रेन को धकियाते भीतर घुसा। इस रेले में अपने जिंदल साहब भी थे, डिब्बे में उनकी नज़र एक जोड़े पर पड़ी, फिर मुझ पर... जिंदल साहब के अंदर छुपा कवि जागा औऱ उन्होंने गढ़ दिया एक नाम ; नए-नए कैचवर्ड-स्टिंग बनाना/सुझाना इनकी दिनचर्या में शुमार है ;नाम दिया...मोहब्बत की मेट्रो)

...देहात की मेट्रो के सफर के बाद मैं जैसे भौचक्का रह गया था... इतना सब देखने की ना तो कभी कल्पना की थी... और ना ही कामना। घर से मात्र डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर मेट्रो स्टेशन होने के बावजूद अब मैं बसों से ज़्यादा सफर करने लगा। सड़कों पर ट्रैफिक बेतहाशा बढ़ चला था...डीयू से सीपी पहुंचने के लिए दो घंटे से भी ज़्यादा वक्त लगने लगा था। लेकिन बहुत दिनों तक ऐसा नहीं चल पाया। एक दिन हिम्मत कर मैने फिर से मेट्रो से जाने का फैसला किया।

घर से अक्सर मैं पैदल ही मेट्रो स्टेशन तक चला जाया करता था... स्टेशन तक का सफर तो वही जाना पहचाना सा ही था... हां जब स्टेशन पहुंचा तो माहौल जरुर बदला-बदला नज़र आया।

इमारत की सीढ़ियों के अलावा जहां-जहां भी बैठने लायक जगह थी, प्रेमी जोड़े पूरे साज-श्रृंगार के साथ बैठे हुए थे। अब आप कहेंगे कि इसमें नया क्या है...बैठते तो पहले भी थे...बैठते रहे हैं और बैठते रहेंगे। लेकिन मैने जो देखा वो आपको बताता हूं। बैठने लायक सभी जगहों पर बड़े-बड़े अक्षरों में साफ-साफ लिखा था कि ये जगह प्रेमी जोड़ों के लिए आरक्षित है। मुझे जानने की उत्सुकता हुई कि आखिर ये माजरा क्या है...लेकिन आसपास नज़र दौड़ाने पर कोई भी सिंगल आदमी मुझे नज़र नहीं आया। थोड़ा साहस जुटा कर मैने एक शांत से दिखने वाले अधेड़ उम्र के अधपके बालों को सहेजे एक प्रेमी जोड़े से आखिर पूछ ही लिया।

मेरा सवाल सुनते ही उनकी आंखों में चमक आ गई। बड़े प्यार से वो बोले...जनाब दुनिया में कुछ भी ऐसे ही नहीं मिलता है। बहुत संघर्ष के बाद हम प्रेमियों ने अपनी मांगें मनवाई हैं। हमने मेट्रो जाम की ...खिड़कियों के शीशे तोड़े... ड्राइवर की पिटाई ...जैसे तमाम हथकंडे अपनाए तब कहीं जाकर हमें प्यार का ये अधिकार मिल पाया है।

कलियुग के प्यार की इस महानता पर नतमस्तक हो मैं आगे बढ़ चला और सीधा प्लेटफॉर्म पर ही जाकर रुका। औऱ वाकई हर जगह मुझे बस प्यार ही प्यार औऱ उस प्यार में डूबे जोड़े ही नजर आए...ना उम्र की सीमा थी औऱ ना जन्म का बंधन... हर एक बेंच प्रेमी जोड़ों के लिए आरक्षित थी... औऱ बैठने की उस बेंच का आज के युग के मल्टीटॉस्कर प्रेमी हरसंभव इस्तेमाल कर रहे थे। पहले जो गार्ड सीटी बजाकर ट्रेन के आने पर लोगों को सावधान किया करता था वो आज भी वही काम कर रहा था, अब वो प्रेमातुर जोड़ों को ट्रेन के आने-जाने की सूचना दिया करता था, घर-दफ़्तर पहुंचने में उनकी मदद करता था ताकि वो समय रहते सुविधानुसार प्यार कर सकें।

इतने में ट्रेन आई और सभी बड़े सलीके से पहले ट्रेन से उतरे फिर उसके बाद लोग उसमें चढ़े। चढ़ते-उतरते वक्त लड़कियों-महिलाओं से कहीं कोई छेड़खानी नहीं, कोई धक्कामुक्की नहीं। हालात वाकई बदल गए थे। ट्रेन के अंदर भी दो लोगों के बैठने की क्षमता वाली कॉर्नर सीट प्रेमियों के लिए आरक्षित थी, हालांकि जगह की कमी के कारण ज़्यादा लोगों को उस पर बैठना पड़ रहा था। मेट्रो का ये वातानुकूलित प्यार अब मुझे रास आने लगा था।

इतने में ही हम जा पहुंचे सीपी । यहां अब एक बड़ा सा लवर्स लाउंज बना दिया गया था, जहां आम और अकेले आदमी के आने की सख्त मनाही थी। साथ ही चस्पां थी एकदम सख्त चेतावनी Trespassers will be prosecuted –

यहां एक और बात पर मैने गौर किया। बैठने की जितनी भी बेंचें थीं...सब पर दो ही सीटें थीं। टोकन डालकर और मेट्रो कार्ड दिखाकर अब दो लोग साथ में स्टेशन एरिया में धुस सकते थे, यानि हाथ में हाथ डाले लव बर्ड्स इकट्ठे इंट्री करते हैं, पहले जैसा नहीं कि कि एक का कार्ड रीड नहीं हुआ तो किसी का टोकन ...और दूसरा उस पार इंतज़ार करता ही रह गया।

वैसे तो कॉलेज आने-जाने का टाइम तो कोई फिक्स होता नहीं है...लेकिन मेट्रो ने भी अपनी यू-स्पेशल सेवा शुरु कर दी थी जो डिपो में ट्रेन के सर्विस पर जाने के टाइम तक भरी रहती थी।

प्लेटफॉर्म पर लगे मॉनीटरों पर अब जनहित में जारी संदेशों की बजाय सुमधुर प्रेम गीत फुल वॉल्यूम पर बज रहे थे। प्रेमी जोड़े ट्रेन का इंतज़ार करते हुए संगीत में खोए हुए थे तो गार्ड तांक-झांक करने वालों को बड़े ही सलीके से समझा रहे थे। वहीं अपना आम औऱ अकेला आदमी जहां कहीं भी था सहमा-सहमा ही नज़र आ रहा था। तभी मैने कुछ प्रेमी जोड़ों को हाथों में पोस्टर बैनर लिए लवर्स लाउंज के बाहर नारेबाज़ी करते देखा। इन लोगों की मांग थी कि चूंकि इनका प्यार मेट्रो में पर्यटन को बढ़ावा देता है लिहाज़ा प्यार करने वालों या फिर कम से कम प्यार करते दिखने वालों के लिए रियायती दरों पर सफर की सुविधा होनी चाहिए। साथ ही मेट्रो को बेस्ट ज़ोड़ा ऑफ द वीक जैसे कॉन्टेस्ट का समय-समय पर आयोजन करना चाहिए...जैसी तमाम मांगों को लेकर ये लोग अब ट्रैक पर जा उतरे थे... इतना सब देखकर अब तक मैं इमोशनल हो चला था...मैने अभी उनका साथ देने का मन बनाकर उस ओर कदम बढ़ाया ही था कि दो-तीन जोड़ी आंखों ने मुझे हिकारत भरी नज़र से देखा... वो लोग मुझे आम और अकेला समझ रहे थे... इतने में मेरे फोन की भी घंटी बजी और मैं भी मुस्कुराता हुआ लवर्स लाउंज में जा पहुंचा ...वहां कोई मेरा भी इंतज़ार कर रहा था...

गुरुवार, 11 जून 2009

कवि की कल्पना ...

सुबह के 4 बज रहे हैं... इतनी तड़के भी स्टेशन पर जैसे भगदड़ मची हुई है। स्टेशन के गेट पर जबरदस्त पहरा है...एनएसजी तैनात है...स्निफर डॉग जहां-तहां सूंघ रहे हैं...औऱ पब्लिक जैसे एक ही ट्रेन से निकल जाने को बेताब है। दिल्ली जैसे शहर में सुबह-सुबह इतने लोगों को इतना व्यस्त देखने की वैसे भी आदत नहीं है। खैर, प्लेटफॉर्म पर बड़ी बेसब्री से ट्रेन का इंतज़ार हो रहा है, जैसे ही ट्रेन आने की उद्घोषणा हुई, ये बेसब्री फिर से भगदड़ में तब्दील हो गई अब तक मैं नींद के खुमार में भागती दुनिया का आधा सच ही देख पा रहा था कि अचानक ट्रेन की छत पर सवार होने की फिराक में कूदते-फांदते एक सज्जन से मैं टकरा गया। वो सज्जन तो अपने सामान सहित छत पर जा बैठे लेकिन मैं पूरा माहौल देख कर चकरा गया।

एकदम चमचमाती ट्रेन ... ट्रेन की चकाचक कांच की खिड़कियों के बाहर कुंडे लटके हुए थे, जिनपर दूधिए पूरे अपनेपन के साथ दूध के डल्लू-कनस्तर लटका रहे थे। पूरी ट्रेन मानो मदर डेयरी बनी हुई थी, दूध सेवन प्रोत्साहन का परफेक्ट सरकारी विज्ञापन। ट्रेन की छत पर भी कुछ ऐसा ही नज़ारा था। सवारियां पूरी फुरसत में थीं, ताश के पत्ते फेंटे जा रहे थे...बीड़ियों का दौर...और बीच में रखा पंचायती हुक्का, यानि एकदम ही कम्फर्ट, घर जैसा आराम।ये शायद डेली पैसेंजरों वाली जमात थी। तभी मेरे कानों में किसी के चिल्लाने की आवाज़ पड़ी...गर्दन घुमाकर देखा तो एक साहब एनएसजी कमांडो से भिड़े हुए हैं। खालिस हरियाणवी भाषा में श्लोक पूरे प्लेटफॉर्म पर गूंज रहे थे। 'रै तू काल का छोरा, मेरे तै जबान लड़ावगा, घणा डीसी बणै है, तेरे जिसे छत्तीस म्हारे आगे-पाछे घूमैं हैं...तैने तो काल देख लूंगा ' जैसे अंलकृत वाक्य सुनकर लोग धन्य हो रहे थे। पूछताछ करने पर जो पता लगा वो और भी हैरान कर देने वाला था। दरअसल आजकल कुछ लोग चाहते हैं कि दूध उनके सामने ही निकाला जाए। अब गांव देहात में तो लोग घर पहुंच कर सामने दूध निकलवा भी लें लेकिन शहर में तो साहब भैंस को ही ले जाना पड़ेगा ना। लो साहब तो इस ट्रेन में भैंस को ले जाने की भी सुविधा है ...लेकिन सिर्फ आखिरी डब्बे में ...इस सुविधा के लिए एक घंटा पहले आकर बुकिंग करनी पड़ती है, वो साहब लेट हो गए तो बुकिंग नहीं हुई। लेकिन इतने में देखते हैं कि स्टेशन से बाहर कहीं भी कभी भी फोन कर के बुलाएं कैब सुविधा वालों की जगमग टाटा-407 में लदी भैंस जा रही है और शान से जा रहे हैं गाली प्रेमी वही सज्जन। भई दूध तो पहुंचाना ही है ना, उन्होंने तुरंत फोन बुलाया, कैब हाज़िर।

खैर हम वापस प्लेटफॉर्म पर आते हैं। भैंसो से भरा डिब्बा देखकर मैं हैरान था कि इतने में ताज़ा सब्जी ले लो की आवाज़ भी कानों में पड़ने लगी। ट्रेन में सब्ज़ी...देखा तो इससे अगला डिब्बा मानो फ्राइडे मार्केट बना हुआ था। बोरों में सब्ज़ियां औऱ उन बोरों से अंटा डिब्बा। पता लगा कि गांव से ताज़ी सब्ज़ियां लेकर आज़ादपुर मंडी पहुंचाई जाती हैं और साथ ही बोहनी के लिए ट्रेन में ही बेचना शुरु कर दिया जाता है। एक बात और, बोरों पर आईएसआई की मुहर भी लगी थी...यानि आईएसआई मार्का सब्ज़ियां... सब्ज़ी वालों की खुसर-पुसर सुनी तो पता लगा कि आज कल ऑक्सीटॉक्सिन ब्रांड की सब्ज़ियां सबसे ज़्यादा मुनाफा दे रही है।

इतने में चाय गरम की आवाज़ सुनाई दी तो मैं सब्ज़ियों को छोड़ चाय की तरफ लपका...चाय ले लो चाय...गरमागरम चाय... बस यही कसर बाकी रही थी...वो भी पूरी हो गई। सुबह-सुबह चाय मिल जाए तो बस मज़ा आ जाता है। लेकिन इस चाय वाले छोटू के कपड़े मैले-कुचैले नहीं थे... एकदम अपटूडेट नीली वर्दी वाला - चाय वाला देखकर मैने दो रुपए टिप दे डाली तो अपने मॉडर्न छोटू ने आंखे तरेरते हुए दो रुपए मुझे वापस कर दस रुपए मेरी जेब में डाल दिए। वैसे आगे देखा तो पता चला कि पान-बीड़ी-सिगरेट आप जो मांगे...सब व्यवस्था ट्रेन में ...दाम थोड़ा ज़्यादा देना पड़ेगा... अब साहब मल्टीप्लेक्स में भी तो 10 का 50 में खरीदते हैं ना।

यहां तक तो सब ठीक था, लेकिन सीट पर बैठते ही मानो कयामत आ गई। मैं गलती से डेली पैसेंजरों की जमात में जा बैठा ...पहले तो उन्होंने जमकर मेरी धुनाई की और उसके बाद क्या करें औऱ क्या ना करें की लिस्ट मुझे थमाकर ट्रेन से बाहर ढकेल दिया। पूरे कागज़ पर सिर्फ यही लिखा था... डेली पैसेंजरों से कहीं भी पंगा मत लो... आंख उठाकर सामने देखा तो रिबन लगा मेट्रो स्टेशन का नया-नवेला बोर्ड मुझे मुंह चिढ़ा रहा था। विस्तार के तमाम चरणों के साथ मेट्रो अब देहात तक जा पहुंची है... शहरी देहात में मेट्रो का ये ग्रामीण अवतार शायद मेट्रो की परिकल्पना से भी आगे निकल गया। हां , स्टेशन का नाम नहीं बताउंगा, क्योंकि बाहर धकियाते हुए हाथ में थमाए कागज़ का खौफ अब भी मेरे ज़हन से निकल नहीं पाया है। ट्रेन कोई भी रहे मेट्रो हो या अपना देसी लोकल अद्धा...डेली पैसेंजरों का हर जगह यही अंदाज़ है। दिल को तसल्ली इस बात से मिली कि मेट्रो की छत पर बैठे लोगों ने जरुर जाते-जाते हाथ हिलाकर कहा...फिर मिलेंगे ।