मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

पन्नों पर नमी है

कवर पर चढ़ी जिल्द...

पपड़ाई है ...

कमरे की सफेदी की तरह ...

जो उतरना चाहती है...

पर उतरी नहीं है...

हाशिये पर कई...

कटे-फटे से अक्षर हैं...

पर नाम कोई नहीं है...

सबसे पीछे वाले पन्ने पर ...

आड़ी-तिरछी रेखाएं...

खिंचीं हैं...

अलग-अलग रेडियस वाले...

अधबने कई वृत हैं...

जो किसी स्वर -संधि के समान...

अटपटे रिश्तों से गुंथे हैं...

कोई खाका सा लगता है ... अबूझ सा

बस कोई डेफिनिट शेप ...

कोई आकृति नहीं है...

आधी पढ़ी किताबों ...

और

मुड़े-तुड़े पन्नों के बीच से...

कई बुकमार्क्स झांक रहे हैं...

अचरज का भाव...

सबका फेवरेट हैं...

यूं सहेजा जाना उनकी समझ में भी...

अभी तक आया ही नहीं है...

कई पैराग्राफ...

हतप्रभ हैं...

हाई-लाइट किए जाने से...

औऱ कई अंडरलाइन की गई ...

पंक्तियां भी...

अपना खुद का औचित्य...

सालों पहले भुला चुकी हैं...

समय के साथ..

अल्प विराम...

अब स्थायी हो चले हैं...

पूर्ण विराम अब तक रुके पड़े हैं...

परिचय का कॉलम खाली है...

प्रस्तावना अधलिखी है...

जिंदगी की शेल्फ पर...

बेतरतीब रखी हैं कविताएं...

कई हार्ड-बाउंड किस्से हैं...

और पेपरबैक वर्जन में ...

कई कहानियां सिमटी पड़ी हैं...

धूल की तहों में...

धुंधले हैं चेहरे...

पर मन के भीतर ...

जर्द पन्नों पर ...

अब भी बाकी नमी है...

3 टिप्‍पणियां:

  1. kafi achcha likha naye daur ka hai par badhiya...

    http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/

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  2. हाशिये पर कई...
    कटे-फटे से अक्षर हैं...
    पर नाम कोई नहीं है...
    सबसे पीछे वाले पन्ने पर ...
    आड़ी-तिरछी रेखाएं...
    खिंचीं हैं...



    इन पंक्तियों ने दिल छू लिया... बहुत सुंदर ....रचना....

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