चढ़ाता है वो चेहरे पर मुखौटे...
मुस्कान का मुलम्मा ...
हर रोज़ बदल जाता है
अफसोस ... ये सच है
वो इंसां तक नहीं रह पाता है ...
आदमी पर जब ऑफिस हावी हो जाता है ...
मर जाता है आंखों का पानी ...
ज़मीर की बेपर्दगी...
वो नज़रअंदाज़ किए जाता है ...
बिना रीढ़ के वो घिसटता है...
अक्सर अपनी ही नज़रों में गिर जाता है ...
आदमी पर जब ऑफिस हावी हो जाता है ...
बातों में राजनीति ...
हर पहलू में उसे शक नज़र आता है ...
हर आईना उसे धूर्त लगता है ...
वो खुद को पहले से ज़्यादा मक्कार पाता है ...
सोच की कंगाली मतलब क्या है ...
वो ये सोच ही नहीं पाता है...
एक घिसटने वाले जंतु के समान ...
वो तो बस लिजलिजा सा ... और घिनौना हुए जाता है ...
उसकी अप्रोच अब सैडिस्ट है ...
दूसरों के सुख ... अब वो बर्दाश्त नहीं कर पाता है ...
अब वो नौकरी को जीता नहीं है...
उसे जस्टीफाई करने में जुट जाता है ..
आदमी पर जब ऑफिस हावी हो जाता है ...
हां ...
आदमी पर जब ऑफिस हावी हो जाता है ...
कुछ की नियति ये कतई नहीं है ...
लेकिन जो निकृष्ट हैं...
आप गौर कीजिएगा ...
आदमी का इंसां ना रहना ...
उनकी किस्मत बन जाता है ...
मुझे अफसोस है ... मगर सच ...
वो कितना बेगैरत हो जाता है ...
आदमी पर जब ऑफिस हावी हो जाता है ...
आदमी पर जब ऑफिस हावी हो जाता है ...
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