शनिवार, 26 नवंबर 2016

ज़िंदगी के ज़ायके -1


ज़िंदगी के फलसफों के अपने ही ज़ायके हैं, खुद ज़िंदगी के ज़ायके हज़ार हैं, इनमें से कौन-सा ज़ायका आपका है... ये आपको खुद ही चख कर, परख कर खोज निकालना होगा। कोई और आपके लिए इस काम को अंजाम नहीं दे सकता है वो बस आपको राह दिखा सकता है, आपके भीतर बसी उस इच्छा को, उस सपने को पंख दे सकता है। हंसी का, खुशी का... सपनों का , ज़िंदगी का... सबका ज़ायका अलग-अलग है, सबका स्वाद अलग है। ज़िंदगी के सफर में कदम-कदम पर यही ज़ायके...यही स्वाद ...यही फलसफे बेशुमार हैं, आप बस चलते रहिए ।

एक अजब संयोग था ये रोड ट्रिप। कुछ दिन पहले तक हम लोग बातें कर रहे थे, हिमालय में अनदेखे, अनजाने रास्तों के सफर के लिए। हम लोग यानी मैं, कुणाल औऱ चेतन। कुणाल और मैं किसी कारणवश तय वक्त पर उस तय सफर के लिए नहीं निकल सके लेकिन चेतन मुसाफिर बाबानिकल पड़ा अपनी धुन में। हम लोग संपर्क में रहे तब तक, जब तक वहां चेतन के फोन में नेटवर्क बरकरार रहा, उसके बाद इंतज़ार होता रहा उसके नेटवर्क युक्त इलाके में आने और संपर्क स्थापित करने का।
यहां दूसरी तरफ उसके सफर पर निकलने के दो-तीन दिन बाद यूंही बातो-बातों में कुणाल और मैंने माउंट आबू की तरफ निकलना तय कर लिया। एक तरफ हिमालय के पहाड़ तो वहीं उसके ठीक उलट जून के महीने में दिल्ली की भयंकर गर्मी, हरियाणा और राजस्थान के तमाम रास्ते पार करते हुए आस-पास के इलाके के एकमात्र हिल-स्टेशन माउंट आबू तक का सफर। थोड़ा मुश्किल जरूर लगा लेकिन इस सफर का सबसे बड़ा आकर्षण था... अजमेर में दरगाह शरीफ जाना और फिर उसके बाद एक दिन पुष्कर प्रवास। यही वजह थी कि हम दोनों गर्मी के मौसम में आंख मूंदकर निकल पड़े उस सफर पर।
दिल्ली से माउंट आबू तक की दूरी करीब 750 किलोमीटर है, इसलिए सुबह-सुबह जितना जल्दी हो सके उठकर निकला तय हुआ, जिससे सफर के सभी पड़ावों पर तय वक्त से पहुंचा जा सके। लेकिन देर रात तक जाने की प्लानिंग पर ही काम होता रहा। लिहाज़ा सुबह उठना लेट हुआ और फिर उसी हिसाब से घर से निकलना, और उतना ही दिल्ली-हरियाणा का सुबह का मिला-जुला ट्रैफिक। लेकिन एक बार मानेसर को पार करने बाद, ये पूरी तरह से हाईवे का सफर बन चुका था। मेरा ननिहाल राजस्थान के शुरुआती ज़िले अलवर में ही पड़ता है, वो भी राजस्थान-हरियाणा बॉर्डर पर दूसरा या तीसरा गांव... लिहाज़ा धारुहेड़ा, बनीपुर चौक, जयसिंहपुर खेड़ा तक का जयपुर हाईवे का सफर अनगिनत बार तय किया है, इसलिए वहां तक पहुंचने में वक्त का ज़रा भी पता नहीं चला। सफर में होने का अंदाज़ा शाहजहांपुर और नीमराणा पार करने के बाद शुरु हुआ।

सफर जैसा सोचा था... उससे कहीं ज़्यादा दिलचस्प था और जून का महीना जितना होता था उससे कहीं ज़्यादा गर्म। कार के अंदर तो एसी की राहत थी लेकिन उसके बाहर, रास्ते में कहीं रुकते ही लू के थपेड़े बेहाल करने को बेताब... लेकिन सफर जारी रहा . . .

. . . इस सफर में... ज़िंदगी के कई ज़ायके देखने को मिले। बहुत कुछ अनदेखा और अनजाना, जो आप सिर्फ जी सकते हैं ... महसूस कर सकते हैं।  बहुत कुछ जो मैं शायद लिख भी ना सकूं, ये वो अहसास होते हैं जो आपके अपने होते हैं, लेकिन उसके अलावा वो सब कुछ जिसे आप शब्दों में उतार सकते हैं, वो सब लिखने की कोशिश यूंही जारी रहेगी ... 
और हां ... पैसे होना थोड़ा सा जरूरी जरूर होता है लेकिन ज़िंदगी जीने के जितना जरूरी भी नहीं, जी सको तो ज़िंदगी नई करेंसी की तरह... और बहुत कुछ मन में ही रह जाए तो हालत काले धन और 500-1000 के उन नोटों सरीखी हो जाती है जब आपके पास पैसे होकर भी नहीं है, माने ये कि ज़िंदगी चल तो रही है लेकिन आपने उसे जीना बंद कर दिया है... नोट बदलने की ही तरह आपको ज़िंदगी बदलनी होगी... सफर को साथी बनाईए और ज़िंदगी को दोस्त ... 
इसके अलावा सफर के हिस्सों से , हिस्सों में मुलाक़ात होती रहेगी . . .फिर मिलेंगे चलते-चलते !!!

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