गुरुवार, 19 अगस्त 2010

बस यूं ही ...


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तू क्या लिखेगा कागज पर ..

उस बेबाकी से ... जो वक्त पर सिलवटें लिख गईं ...

वो क्या कहेंगे ...

तेरे बेजान लफ्ज ...

कांपते - हांफते...

जो बाजुओं पर यूहीं करवटें कह गई ...

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...एक अजीब सा सपना है ...

जो आजकल मैं देखता हूं...

हाथ की रेखाओं को अपनी...

बारिश के पानी में धुलते देखता हूं...

पर जाने क्यों अच्छा लगता है जब

वजूद को अपने..

बारिश की बूंदों में घुलते देखता हूं ...

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गर ख्वाबों में भी तुझे सताया...

तो तुझे क्या चाहा ...

तेरा दर्द ना अपना पाया ...

तो तुझे क्या पाया ...

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