बुधवार, 23 अप्रैल 2014

वो सड़क वहीं रहती थी ...

वो सड़क कहीं नहीं जाती थी ...
वहीं रहती थी ... हमेशा
जेठ की तपती दुपहरी
चौमासे की झड़ी
और पूस की रात...
चुपचाप सब सहती थी
वो सड़क...
इन्सानों से कुछ नहीं कहती थी...
सुख-दुख का साथी था उसका...
मील का पत्थर एक...
हर शाम ...
अपना दिनभर,
जिससे वो साझा करती थी...
कुछ पत्ते थे शाख से बिछड़े हुए...
जिनके सूख जाने तक वो उनसे बातें करती थी...
उन पत्तों को ले जाती हवा से...
अक्सर वो लड़ती थी...
वो एक महानगर की सड़क थी...
वही रोड़ी...डामर से बनी हुई...
फिर भी जानी पहचानी कस्बाई सी लगती थी...
साल दर साल चढ़ती परतें ...
आना... जाना...बिछुड़ना...
सब सहती थी...

नन्हे कदमों की आहट
शायद ...मां से बेहतर सुनती थी...
बारात की रौनक में
उतनी ही शामिल...
हर किसी के ग़म में ...
उतनी ही शरीक होती थी...
किसी की आंखों के सपनों में
चुपचाप रंग भरती थी,
वो सड़क कहीं नहीं जाती थी....
वो सड़क ... बस वहीं रहती थी...

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