रविवार, 12 जून 2016

Right To Refuse Service - कितना सही कितना ग़लत

बहुत कुछ किसी फिल्म सरीखा ही था, जहां एक सबल महिला किसी निर्बल (जरूरतमंद) की मदद करना चाहते हुए भी नहीं कर पा रही थी, वजह वो सिस्टम जहां पर वो सबल महिला तो स्वीकार्य है लेकिन वो निर्बल नहीं। मामले को समझने के लिए पहले इस तस्वीर को ज़रा को गौर से देखिए...
पहली नज़र में कुछ भी अटपटा नहीं लगता है, लेकिन फिर ज़रा ध्यान से देखने पर आपकी नज़र दरवाज़े पर प्रदर्शित इस संदेश की तरफ जाती है, हो सकता है बहुत सी जगहों पर Management की तरफ से इस संदेश को चस्पां किया जाता हो, और होने को तो ये भी हो सकता है कि अनेकों बार यहां जाने के बावजूद पहली बार ही इस पर मेरी नज़र पड़ी हो। कानूनी या गैरकानूनी मुझे नहीं पता लेकिन आंखों को खटका तो तस्वीर खींच ली। लेकिन इस तस्वीर को खींचना और पास ही हो रहे एक और घटना क्रम की timing एक सी होने पर बहुत कुछ एक दूसरे में गड्डमड्ड होता चला गया।
ये समूचा घटनाक्रम देश की राजधानी के दिल कनॉट प्लेस के जनपथ का है।

 अब आप इन दोनों तस्वीरों को देखिए। ये भीड़ औऱ जमावड़ा यूं ही नहीं है। ये वही महिला है इन तस्वीरों में जो कैमरे पर बाईट देती नज़र आ रही हैं। भीड़-भाड़ और शोर-शराबे में जितना सुन पाया और जितना समझ पाया वो ये रहा कि ये महिला अपने साथ कुछ जरूरतमंद बच्चों को एक रेस्त्रां में ले जाना चाहती थी और management ने ऐसा नहीं होने दिया ... उस रेस्त्रा़ं के कर्मचारियों को वो सबल महिला तो स्वीकार्य थी लेकिन  उस वक्त के उनके वो साथी नहीं, जिन्हें वो अपने साथ ले जाना चाहती थीं। महिला के मुताबिक उसका ऑर्डर पैक कराने का अनुरोध भी ठुकरा दिया गया। बच्चों के कपड़े गंदे होने का तर्क देकर उन्हें सर्व करने से मना कर दिया गया।
आखिर अतिथि देवो भव: आप जगह - जगह इस्तेमाल में लाने लगे तो एड फिल्म्स की क्या जरूरत रह जाएगी, कस्टमर भगवान होता है ये मोहल्ले की किराने की दुकान पर ही अच्छा लगता है।
लेकिन इस महिला को क्या मतलब इन व्यावहारिक बातों से, देहरादून की रहने वाली ये महिला सोनाली अपने पति का जन्मदिन मनाना चाहती थी औऱ इन जरूरतमंद बच्चों के साथ अपनी खुशिया बांटना चाहती थी, लेकिन संभ्रांत और अभिजात्य वर्ग special इस रेस्त्रां के स्टाफ को ये कतई मंजूर नहीं था।  वैसे भी संवेदनशीलता औऱ मानवता अब कोई डिश तो है नहीं जिसका मेन्यू में होना अनिवार्य है। आश्चर्य की बात है कि ये मानसिकता अभी तक लोगों के ज़हन में बरकरार है, इससे आज़ादी कब मिलेगी ये कोई नहीं बता सकता, क्योंकि ये जरूरतमंद आपके वोटबैंक नहीं हैं जिनको ना चाहते हुए भी आज़ादी का झुनझुना थमा दिया जाए और धकेल दिया जाए क्रांति के पथ पर...एक अदद पेट और उस पेट को जलाती भूख के साथ।

हालांकि रेस्त्रां प्रबंधन की तरफ से भी बेहद वाजिब और लाज़मी तर्क दिए गए। उनके मुताबिक बच्चों का व्यवहार ठीक नहीं था और वो तमाशा कर रहे थे। बिल्कुल सही बात है, धंधा अपनी जगह पर है और इंसानियत अपनी जगह पर, आप दोनों को एक साथ कतई नहीं रख सकते। इंसान होने की कीमत अपनी नौकरी देकर कौन चुकाना चाहेगा इस कलियुग में, इसलिए सब होता है, सब जायज़ है... आप कब तक हक़ की लड़ाई लड़ते रहेंगे, अपने लिए ...औरों के लिए... समाज के लिए, यहां हर आदमी अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहा है, अपने हिस्से की दुनिया पाने के लिए।
और असल में सामंती विचारधारा किसी विरासत की मोहताज़ तो है नहीं... ये तो आपके रसूख और रुतबे के साथ भी फ्री में मिलती है। जहां ये ताकत औऱ सत्ता का नशा लोगों के सिर पर चढ़ता है लोग भेदभाव करने में अंग्रेज़ों को भी पीछे छोड़ देते हैं।

खैर, इस सब के बीच दिल्ली सरकार का कहना है कि यदि इस मामले में कोई दोषी पाया जाता है तो कार्रवाई अवश्य की जाएगी। उम्मीद है कार्रवाई जल्द होगी...

शनिवार शाम यूं भी जनपथ पर काफी चहल-पहल होती है। लिहाज़ा भीड़ जुटने में क्या वक्त लगता है। पहली नज़र  में तो यूं लगा जैसे कोई महिला यूं ही किसी धरने पर बैठी हुई है लेकिन कुछ ही देर में तमाम चैनल्स के कैमरापर्सन और रिपोर्टर्स घटनास्थल की तरफ दौड़ते नजर आए। इस बीच एक पीसीआर वैन भी वहां मौजूद थी और एक पुलिसकर्मी को समूचे घटनाक्रम को कैमरे में कैद करते हुए भी देखा गया। एक तरफ शॉट्स बनाए जा रहे थे तो दूसरी तरफ एक रिपोर्टर पीटीसी करने में व्यस्त... एकाध वॉक-थ्रू भी निपटा दिया गया होगा वहीं खड़े-खड़े। हमारे देश में तमाशबीन सब्ज़ी मंडी में आलू की तरह मिलते हैं, लिहाज़ा हर तरह के आलू वहीं मौजूद थे। उनमें से एक आलू मैं भी था... और मुझे कुछ दिन पहले की एक और खबर आलू चाट सरीखी याद आ गई... पता नहीं वहां क्या माहौल है अब... तस्वीरों के माध्यम से एक खबर शेयर कर रहा हूं... मेरे जैसे सभी आलुओं के लिए... मुझे गर्व है अपने आलू होने पर ...

                                                                

क्या आप भी एक आलू बनना चाहते हैं। अगर आपका जवाब हां में है तो आपको कुछ भी करने की जरूरत नहीं। लेकिन अगर आपका जवाब ना में है तो जनाब आप अपना जवाब बदल लीजिए... आलू होना सबके बस की बात नहीं ... लेकिन सबसे सहज आलू होना ही है। जीवन में सहजता को लाइए... आप एक आदर्श आलू साबित होंगे। 

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