मुद्दों की आड़ में
गई इंसानियत भाड़ में
हैवानियत के ठेके पर
जब हम ताज़ा ताज़ा हैवान
बनते हैं...
बहुत कुछ गवां देती है
ज़िंदगी
चंद मकसदों के लिए
शहर जब शमशान बनते हैं...
कर्फ्यू की खामोशी में
दस दिन की बासी रोटी में
मांगें हुए चंद निवालों में
किस तरह दिन सालों से निकलते हैं
ऑर्डर की राह तकती आंखों की बेबसी
भीड़ के आगे क्यूं बेज़ुबान बनते हैं
रिश्तों के कफन लिए
ऑर्डर की राह तकती आंखों की बेबसी
भीड़ के आगे क्यूं बेज़ुबान बनते हैं
रिश्तों के कफन लिए
चंद कमज़र्फों की कमान में
शहर जब शमशान बनते हैं...
खाली पड़े बंद मकानों में
लुट चुकी जली दुकानों में
लाशों की राख है बिखरी हुई
खाली पड़े बंद मकानों में
लुट चुकी जली दुकानों में
लाशों की राख है बिखरी हुई
मुर्दा मोहल्लों... अरमानों में
रंगों में
रंगों में
निशानों में
फर्क मिट जाए
जब इंसानों में
हदों से भी आगे
हम बेशर्म अनजान बनते है
चंद मतलबों के लिए
शहर जब शमशान बनते हैं
शहर जब शमशान बनते हैं
अपनों के ही हाथों
अपनों की लाशों के मचान बनते हैं
शहर ... जब शमशान बनते हैं...
This is really an exquisite creation. Hats off to you sir. :-)
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आशीष :)
हटाएं