रविवार, 24 नवंबर 2013

तुम एक सोच हो ...

क्यों ...
आखिर क्यों तुम बासी हो चली हो ...
ठंडी पड़ी उस चाय की तरह ....
जिसे नुक्कड़ का चायवाला बार बार गर्म कर परोस देता है ....
और सुड़क सुड़क कर तुम
पी जाते हो चुपचाप बिना किसी शिकायत के ...
उस चाय को जिसमें पत्ती से ज़्यादा ...
चाय के बर्तन का जंग महकता है ...
जिसमें चाय की पत्ती से ज़्यादा
उस पेड़ के पत्ते मिले हैं
जो ऊपर से सब कुछ देखता रहता है चुपचाप
औऱ मुस्कुराता है...
नीचे जुटी बुद्धि-परजीवियों की जमात
और उनकी फेसबुकिया जुगाली पर ...
क्यों ...
आखिर क्यों तुम पर असर डालने लगी हैं ...
इस नश्वर दुनिया की मायावी बातें ...
और घिनौनी लगने लगी हो तुम ...
आज जब चाय की इस दुकान पर अरसे बाद मिली हो ...
हां घिनौनी ...
बिल्कुल कांच के इस गिलास की तरह...
जिसे खरीदने के बाद कभी धोया नहीं गया ...
बस खंगाल दिया गया ...
जूठे बर्तनों से भरे एक बड़े से टब में ....
जो गंदला उठा है...
जमाने भर के लोगों की सोच से...
जो वो बची-खुची चाय के साथ
उसी गिलास में जमी
पपड़ाई मलाई की परत के साथ छोड़ गए
तभी रह रहकर स्वाद चाय से ज़्यादा ...
जग की झूठन का कौंचता है...
क्यों ...
आखिर क्यों...
फटे हुए दूध के उबाल सरीखे...
बेस्वाद ... अपने विचारों को समेटे हो...
हंसी ठठ्ठा करते चार लोगों का ओपिनियन पोल नहीं  ...
जो ऐसे किसी भी पेड़ के नीचे बैठकर ...
ज़माने भर को चार गालियां देकर ...
खीसें निपोरते हैं ...
टूटी चारपाईयों पर बैठने वाले ये लोग ...
बिना रीढ़ के ...
तुम इनसे परे हो ...
तुम एक सोच हो...
तुम्हें जिंदा रहना है ....
कहा है ना
फेसबुकिया जुगाली नहीं...
बुद्धि-परजीवियों की जमात से परे ...
ब्लॉगिक आत्म-मुग्धता से दूर ...
तुम एक सोच हो...
तुम्हें जिंदा रहना है ....

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