शनिवार, 20 जून 2009

विडंबना

(एक पुरानी रचना है, आज भी सोचने पर अक्सर मजबूर कर देती है)...

बाल बेतरतीब थे...
अटपटी सी चाल चलते,
रास्ते पर बिखरे कंकड़ों को ठोकर मारते,
अनमने से यूंही,
जाने किस उधेड़बुन में,
बेतहाशा... पागलों की तरह,
अपने आप से बातें करते,
हम निरंतर चले जा रहे थे...
कि अचानक अपने खुद के कदम नापती,
मेरी आंखों की पुतलियां,
विस्मय से फटने को आतुर हो उठी,
एक अजीब सी घुटन,
मेरे विचारों का दम घोंटने लगी,
मुझे लगा कि मेरा व्यक्तित्व टूटकर,
कांच की किरचों के समान ,
मेरे भीतर,
मुझे कहीं लहुलुहान कर रहा है,
अचानक अपनी ही नज़रों से गिर जाने का दंश,
पल-प्रतिपल टीसने लगा,
औऱ डबडबा आई आंखों में गहराते शून्य के बीच मैने देखा,
चीथड़ों में तन ढके एक नंग-धड़ंग बालक,
जो अभी हाल-फिलहाल में चलना सीखा होगा,
अपने नेत्रहीन-ढांचामय पिता का हाथ थामे,
ठेले पर सब्ज़ियां बेचकर,
अपने हिस्से के अभावों से जूझ रहा था,
और शर्मसार मैं...
पढ़ाई, खेल और करियर के नाम पर ,
जन्म से ही मां-बाप का खून चूसकर बड़ा हुआ,
जब उन्होंने जेबखर्च बढ़ाने से इनकार कर दिया,
तो जी भरकर उन्हें कोसने के बाद,
मूड ठीक करने के लिए,
नुक्कड़ के पनवाड़ी से उधार लेकर,
एक मशहूर पब की तरफ,
अंधाधुंध दौड़े चला जा रहा था...

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