गुरुवार, 11 जून 2009

कवि की कल्पना ...

सुबह के 4 बज रहे हैं... इतनी तड़के भी स्टेशन पर जैसे भगदड़ मची हुई है। स्टेशन के गेट पर जबरदस्त पहरा है...एनएसजी तैनात है...स्निफर डॉग जहां-तहां सूंघ रहे हैं...औऱ पब्लिक जैसे एक ही ट्रेन से निकल जाने को बेताब है। दिल्ली जैसे शहर में सुबह-सुबह इतने लोगों को इतना व्यस्त देखने की वैसे भी आदत नहीं है। खैर, प्लेटफॉर्म पर बड़ी बेसब्री से ट्रेन का इंतज़ार हो रहा है, जैसे ही ट्रेन आने की उद्घोषणा हुई, ये बेसब्री फिर से भगदड़ में तब्दील हो गई अब तक मैं नींद के खुमार में भागती दुनिया का आधा सच ही देख पा रहा था कि अचानक ट्रेन की छत पर सवार होने की फिराक में कूदते-फांदते एक सज्जन से मैं टकरा गया। वो सज्जन तो अपने सामान सहित छत पर जा बैठे लेकिन मैं पूरा माहौल देख कर चकरा गया।

एकदम चमचमाती ट्रेन ... ट्रेन की चकाचक कांच की खिड़कियों के बाहर कुंडे लटके हुए थे, जिनपर दूधिए पूरे अपनेपन के साथ दूध के डल्लू-कनस्तर लटका रहे थे। पूरी ट्रेन मानो मदर डेयरी बनी हुई थी, दूध सेवन प्रोत्साहन का परफेक्ट सरकारी विज्ञापन। ट्रेन की छत पर भी कुछ ऐसा ही नज़ारा था। सवारियां पूरी फुरसत में थीं, ताश के पत्ते फेंटे जा रहे थे...बीड़ियों का दौर...और बीच में रखा पंचायती हुक्का, यानि एकदम ही कम्फर्ट, घर जैसा आराम।ये शायद डेली पैसेंजरों वाली जमात थी। तभी मेरे कानों में किसी के चिल्लाने की आवाज़ पड़ी...गर्दन घुमाकर देखा तो एक साहब एनएसजी कमांडो से भिड़े हुए हैं। खालिस हरियाणवी भाषा में श्लोक पूरे प्लेटफॉर्म पर गूंज रहे थे। 'रै तू काल का छोरा, मेरे तै जबान लड़ावगा, घणा डीसी बणै है, तेरे जिसे छत्तीस म्हारे आगे-पाछे घूमैं हैं...तैने तो काल देख लूंगा ' जैसे अंलकृत वाक्य सुनकर लोग धन्य हो रहे थे। पूछताछ करने पर जो पता लगा वो और भी हैरान कर देने वाला था। दरअसल आजकल कुछ लोग चाहते हैं कि दूध उनके सामने ही निकाला जाए। अब गांव देहात में तो लोग घर पहुंच कर सामने दूध निकलवा भी लें लेकिन शहर में तो साहब भैंस को ही ले जाना पड़ेगा ना। लो साहब तो इस ट्रेन में भैंस को ले जाने की भी सुविधा है ...लेकिन सिर्फ आखिरी डब्बे में ...इस सुविधा के लिए एक घंटा पहले आकर बुकिंग करनी पड़ती है, वो साहब लेट हो गए तो बुकिंग नहीं हुई। लेकिन इतने में देखते हैं कि स्टेशन से बाहर कहीं भी कभी भी फोन कर के बुलाएं कैब सुविधा वालों की जगमग टाटा-407 में लदी भैंस जा रही है और शान से जा रहे हैं गाली प्रेमी वही सज्जन। भई दूध तो पहुंचाना ही है ना, उन्होंने तुरंत फोन बुलाया, कैब हाज़िर।

खैर हम वापस प्लेटफॉर्म पर आते हैं। भैंसो से भरा डिब्बा देखकर मैं हैरान था कि इतने में ताज़ा सब्जी ले लो की आवाज़ भी कानों में पड़ने लगी। ट्रेन में सब्ज़ी...देखा तो इससे अगला डिब्बा मानो फ्राइडे मार्केट बना हुआ था। बोरों में सब्ज़ियां औऱ उन बोरों से अंटा डिब्बा। पता लगा कि गांव से ताज़ी सब्ज़ियां लेकर आज़ादपुर मंडी पहुंचाई जाती हैं और साथ ही बोहनी के लिए ट्रेन में ही बेचना शुरु कर दिया जाता है। एक बात और, बोरों पर आईएसआई की मुहर भी लगी थी...यानि आईएसआई मार्का सब्ज़ियां... सब्ज़ी वालों की खुसर-पुसर सुनी तो पता लगा कि आज कल ऑक्सीटॉक्सिन ब्रांड की सब्ज़ियां सबसे ज़्यादा मुनाफा दे रही है।

इतने में चाय गरम की आवाज़ सुनाई दी तो मैं सब्ज़ियों को छोड़ चाय की तरफ लपका...चाय ले लो चाय...गरमागरम चाय... बस यही कसर बाकी रही थी...वो भी पूरी हो गई। सुबह-सुबह चाय मिल जाए तो बस मज़ा आ जाता है। लेकिन इस चाय वाले छोटू के कपड़े मैले-कुचैले नहीं थे... एकदम अपटूडेट नीली वर्दी वाला - चाय वाला देखकर मैने दो रुपए टिप दे डाली तो अपने मॉडर्न छोटू ने आंखे तरेरते हुए दो रुपए मुझे वापस कर दस रुपए मेरी जेब में डाल दिए। वैसे आगे देखा तो पता चला कि पान-बीड़ी-सिगरेट आप जो मांगे...सब व्यवस्था ट्रेन में ...दाम थोड़ा ज़्यादा देना पड़ेगा... अब साहब मल्टीप्लेक्स में भी तो 10 का 50 में खरीदते हैं ना।

यहां तक तो सब ठीक था, लेकिन सीट पर बैठते ही मानो कयामत आ गई। मैं गलती से डेली पैसेंजरों की जमात में जा बैठा ...पहले तो उन्होंने जमकर मेरी धुनाई की और उसके बाद क्या करें औऱ क्या ना करें की लिस्ट मुझे थमाकर ट्रेन से बाहर ढकेल दिया। पूरे कागज़ पर सिर्फ यही लिखा था... डेली पैसेंजरों से कहीं भी पंगा मत लो... आंख उठाकर सामने देखा तो रिबन लगा मेट्रो स्टेशन का नया-नवेला बोर्ड मुझे मुंह चिढ़ा रहा था। विस्तार के तमाम चरणों के साथ मेट्रो अब देहात तक जा पहुंची है... शहरी देहात में मेट्रो का ये ग्रामीण अवतार शायद मेट्रो की परिकल्पना से भी आगे निकल गया। हां , स्टेशन का नाम नहीं बताउंगा, क्योंकि बाहर धकियाते हुए हाथ में थमाए कागज़ का खौफ अब भी मेरे ज़हन से निकल नहीं पाया है। ट्रेन कोई भी रहे मेट्रो हो या अपना देसी लोकल अद्धा...डेली पैसेंजरों का हर जगह यही अंदाज़ है। दिल को तसल्ली इस बात से मिली कि मेट्रो की छत पर बैठे लोगों ने जरुर जाते-जाते हाथ हिलाकर कहा...फिर मिलेंगे ।

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