वो पुरानी हवेली की दीवार पर उगा पीपल...
अक्सर मुझे याद कर के मुस्कुराता है...
खिल उठती है वो खेतों की पगडंडियां...
जब पंछियों के साथ उड़ता मेरा बचपन...
अब भी उनको कहीं दिख जाता है...
गेंहू की अधपकी बालियों को खाने का स्वाद...
कई बार की पिटाई के साथ याद आता है...
वो गोबर से लिपी-पुती दीवारें मेरे घर की...
कि आईने से बेहतर अक्स उनमें नज़र आता है...
क्यूं पंख लगने लगते हैं गांव के रास्तों की झलक भर से...
क्यूं गांव की माटी का स्वाद ...
यादों में बरबस ताज़ा हो आता है...
हर बार जब भी शहर वापस आता हूं...
कुछ पीछे रह जाता है...
गांव बहुत याद आता है...
गांव बहुत याद आता है...
गांव बहुत याद आता है...
बहोत ख़ुब! मुज़े भी याद आ गइ अपने गाँव की।
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