सोमवार, 15 जून 2009

एक मजदूर (मजबूर) की मौत

" कैलाश को अस्पताल में दाखिला तो मिला लेकिन इलाज के लिए नहीं, पोस्टमॉर्टम के लिए" जैसे ही एक साथी रिपोर्टर से पीटीसी की ये चंद लाइनें सुनी... सभी एक दम से उछल पड़े... वाह गुरु ! खबर बेच दी आपने... वर्ना किसको पड़ी है कि एक मज़दूर की मौत की खबर चलाए वो भी एक सरकारी अस्पताल के बाहर...भले ही वो इलाज के इंतज़ार में तड़प-तड़प कर मर जाए... एकदम ही डाउनमार्केट खबर थी...लेकिन हां ... अब इसको ताना जा सकता है।
लेकिन खबर तो थी... कैलाश को तीन-तीन सरकारी अस्पताल ले जाया गया लेकिन बचाया नहीं जा सका। कहीं इलाज की सुविधा नहीं ...तो कहीं इलाज करने का वक्त ही नहीं था... अब कैलाश भी कितना इंतज़ार करता... एक मज़दूर कितना भी सख्त जान हो लेकिन बिना इलाज बच पाना उसके लिए भी मुमकिन नहीं ।
जब खबर चली तो सवाल-जवाब भी हुए... तुरंत जांच का आदेश भी आया... एक मज़दूर की मौत के मामले की जांच... लेकिन एक दिन बाद ही बयान भी आया कि इस मामले में सरकारी अस्पतालों की तरफ से कोई लापरवाही नहीं बरती गई। ठीक है हम मान लेते हैं कि लापरवाही नहीं बरती गई लेकिन फिर कौन है इस मज़दूर की मौत का जिम्मेदार ?
मौत पर ये सवाल शायद ज़िंदगी से भी बड़ा हो गया है ... नहीं तो ' कैलाश ' खबर नहीं बनता... वक्त पर इलाज हो गया होता तो एक गुमनाम मज़दूर सुर्खियों में भी नहीं आता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, कैलाश इलाज का इंतज़ार ही करता रह गया... अस्पताल के बाहर स्ट्रेचर पर पड़ी उसकी लाश को अस्पताल में दाखिला जरुर मिला ... हां अगर कैलाश को वक्त रहते एडमिट कर लिया जाता तो उसका इलाज होता पोस्टमॉर्टम नहीं...

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