गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

ये आखिर क्या है...




कुछ एबस्ट्रैक्ट सा है...
एकदम अनगढ़...
बिना किसी शेप में...
अबूझ सा...



या फिर एकदम एबसर्ड
बिना किसी मतलब के...
जबरदस्ती...एक हठ की तरह...
शायद बेतरतीब भी...
वाहियात...

किसी कूड़े की तरह...
जैसे कोई इंटेलेक्चुअल खरपतवार हो...
नकारा विचारों को समेटे...
किसी पंगु सोच का प्रतिबिंब...

या फिर...शायद वो एक इमेज है...
बहुत स्ट्रॉंग...
एकदम ब्राइट कलर्स वाली...
हाई कंट्रास्ट इमेज...
या फिर वो ऐसी ढेर सारी इमेजेज़ का...
कोलाज भर है...

कोलाज ...इमोशंस का कोलाज
जिसमें रुखे-सूखे से भाव हैं...
भाव भी नहीं ...
शायद उनकी शैडो है...छाया भर ...
या फिर मुरझाए से फूलों के जैसे...
अवशेष है...
पुरानी किताबों के पन्नों के बीच...
सालों से दबे हुए...
सीलन से भरा अतीत...
रिश्तों की सड़ांध से भरा...



जहां बहुत कुछ ब्लर है...
एकदम धुंधला...
जैसे सब कुछ पिघल गया हो...
या फिर रंग बनाने वाली प्लेट पर...
जैसे धक्का लगने से सारे रंग...
आपस से गडमड हैं...
ना तो मिल पाए...
ना ही इनकी कोई आईडेंटिटी अब बची है...


नथुनों को सनसनाते...
एक सेंट की तरह है वो शायद...
जो हवा के हर झौंके के साथ...
बहे चला आता है...
एक ऐसा सेंट...
जिससे सूंघने की क्षमता...
खत्म हो चली है...
दिमागी जुकाम की तरह...


या फिर वो एक ऐसी मेमोरी है...
जिससे कनपटी की नसें ...
तमतमा उठती है...
चमकने लगती हैं...
किसी एक वॉयलेंट स्ट्रीक की तरह...
है वो...
जो कभी आंखों में खून सी उतर आती है...

वो एक प्रेरणा भी है...
एक इंसपिरेशन...
जो अक्सर सिचुएशनल रुप धर लेती है...
कंटेंट औऱ कंटेक्क्ष्ट के हिसाब से...


या फिर इन सबसे परे...
वो एक अहसास है...
एक फीलिंग..
एकदम प्योर...
टाइमलेस...प्राइसलेस...
समस्या शायद...
... परसेप्शन है...

एक एबनॉर्मल बिहेवियर ...
लगता है अक्सर...
जो शायद मौसम के बदलाव के साथ...
ज़हन को मरीज बनाए देता है...
मेडिकल टर्मिनॉलॉजी में अनफिट...

ये एक तरह का एमनीशिया है शायद...
हां हां... ये दरअसल सिलेक्टिव एमनीशिया है...
जहां सिलेक्शन...
याद रखने और भूलने का है...
या फिर ज़िंदगी जीने ...
या ज़िंदगी जीने के ढोंग जैसा है...

ये आखिर क्या है...

3 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन प्रयोग...उम्दा!


    भावनात्मक अभिव्यक्ति!!

    कोलाज ...इमोशंस का कोलाज
    जिसमें रुखे-सूखे से भाव हैं...
    भाव भी नहीं ...
    शायद उनकी शैडो है...छाया भर ...

    -बढ़िया.

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  2. सही ठेले हो भाई....डायरी के ओर पन्ने भी पलटो......

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  3. ये ज्यादा बेहतर है। पूरी कविता एक मुद्दे पर, लय में दिखती है। आपके अंतर्मन की दुविधा और रीतेपन को साफ व्यक्त करती है। सही जा रहे हो, भाई।

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