मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

तुम सिर्फ एक कविता नहीं हो

तुम सिर्फ एक कविता नहीं हो ...
तुम ...
मेरे जिस्म की उस गंध के समान हो...
जो लिपटी पड़ी हैं...
मेरी हथेली की रेखाओं से ...
एक समान दो जिस्मों की सुवास...
जो एक अकेली गंध पर हावी है...
जो एक अनकही...
अनजानी...
अनदेखी दुनिया में...
कहीं ना कहीं ...
मेरे वजूद का हिस्सा जरुर है ...

तुम सिर्फ एक कविता नहीं हो...
किसी विचारक के कहे मुताबिक ...
सिर्फ भावनाओं का... शब्दों का ...
उगलदान नहीं हों...
बल्कि तुम...
उन तत्सम भावों का समावेश हो...
जो मेरे शब्दों संग...
तद्भव हो जाते हैं...
क्योंकि थोड़ी बहुत मिलावट के बाद ही...
हम इंसान सच को झेल पाते हैं...
विशुद्ध... निर्मल...
औऱ निष्कलंक भावों का कोरापन...
सबको नहीं सुहाता हैं...

तुम सिर्फ एक कविता नहीं हो...
तुम एक सोच हो...
एक मानसिकता की परिचायक...
एक परिपक्व विचारधारा की द्योतक...
बरसों से सुलगती किसी ...
वैचारिक क्रांति की प्रणेता...
मेरे ही रचे किसी सम्मोहक... लेकिन क्षणभंगुर ...
आयाम के सोपान की तरह...
तुम्हारा अस्तित्व एक मुलम्मा है...
जो एक भ्रूण की तरह ...
मेरे... ' मैं 'को सहेजे है...

तुम सिर्फ एक कविता नहीं हो...
तुम तो एक आदत हो...
हर साल लौट कर आते वसंत की...
अपनों को समेटते...
सहेजते ... हेमन्त की याद सी...
सावन के सुर में ...
पगडंडियों से बह निकलती हो तुम...
पौष की रात के एकांत सरीखा चित्त...
हर मौसम हर पहर एक उन्माद सी ...

तुम सिर्फ एक कविता नहीं हो...
जग की उतरन सी...
तुम...
तन की सिहरन सी...
तुम ...
रिश्तों की सिलवट लिए...
बातों में ठिठुरन सी ...
चुपचाप...बहते...
रुधिर प्रवाह के स्पंदन सी...
मेरे भीतर 'खुद से' किसी अनबन सी तुम
नश्वरता को जीत चुकी किसी देह का तेज लिए...
मेरी आत्मा को अंश-अंश कर...
मुक्त करती ... किसी मंथन सी तुम...
तुम सिर्फ एक कविता नहीं हो...

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

वो खुद को गरीब महसूस करता है

वो खुद को गरीब महसूस करता है...
क्योंकि जब वो भीख मांगने को बढ़ा हाथ देखता है...
औऱ जेब से जब निकालता है ...
एक अदद ब्रांडेड पर्स...
तो उसमें 100-100 के 10-15 नोट ही पड़े होते हैं...
काश ये 1000 रुपए के नोट बन जाते...
पलक झपकते ही...
ये सोचते हुए वो...
भिखारी को एक की बजाय दो रुपए देकर आगे बढ़ जाता है...
(नाक-भौं सिकोड़ना लाजमी है)
वो खुद को गरीब महसूस करता है...
क्योंकि जब वो रोज़ ऑटो से सफर करता है...
तो दिन के ढेरों सपनों के साथ देखता है...
उस धक्का स्टार्ट ऑटो को...
फर्राटे से पीछे छोड़ती...
लम्बी-लम्बी गाड़ियों को...
जिनके एसी की कूलिंग पावर...
वो अचानक बाहर तक ...
ऑटो में भी महसूस करता है...
औऱ कुछ पल भूल जाता है...
चेहरे को डीप फ्राई करते...
लू के थपेड़ों को...
औऱ अपना मनपसंद गाना गुनगुनाते हुए...
ऑटो वाले को कहता है...
पता नहीं तुम लोग मीटर से क्यों नहीं चलते...
और थोड़ा तेज़ चलाओ...
मैं लेट हो रहा हूं...
(गाने का मुखड़ा खत्म होने पर... थोड़ी सी झल्लाहट के साथ)
वो खुद को गरीब महसूस करता है...
जब वो किसी 5-स्टार होटल के सामने से गुजरता है...
जहां वो रोज़ जाना चाहता है...
छू कर देखना चाहता है ...
उस ज़िंदगी को...
बेहद करीब से...
जीना चाहता है...
सुना है वहां सब इंतजाम होते हैं....
उस दिन वो घुस जाता है...
अपनी जेब से जरा से उपर रेस्त्रां में...
और पूरा महीना फिर वो दिन
... वो भूल नहीं पाता है...
(कोसता है... उस पल को..उस फैसले को...)
वो खुद को गरीब महसूस करता है...
जब वो एक मल्टी स्टोरी बिल्डिंग में ...
एक उंचे से फ्लोर पर बने अपने ऑफिस में होता है...
उस उंचाई से ...
दिन में कई बार नीचे झांकता है...
नीचे बसी झुग्गियों को हिकारत से देखता है...
लेकिन अपने से उपर के फ्लोर पर जब जाता है ध्यान...
तो वो...
मायूस सा हो जाता है...
भले ही लिफ्ट से कुछ सेकेंड लगते हैं...
लेकिन एक फ्लोर भर का फासला भी...
अक्सर एक पूरी उम्र ले लेता है...
(उसके बाल अभी से सफेद होने लगे हैं...)
वो खुद को गरीब महसूस करता है...
जब वो देखता है...
एक परले दर्जे के बेवकूफ को...
बॉस के सामने....
बेवकूफी की नई-नई मिसालें पेश करते हुए...
उसके आदर्श...
वो वहीं भूल जाता है...
जब वो देखता है...
उसका ही एक साथी...
एक कुत्ते की तरह जीभ निकाले....
खीसें निपोर रहा है...
औऱ दूसरा इंतजा़र में खड़ा है...
कब पहले वाला हटे...
तो वो भी चाटुकारिता का कोई नया अध्याय लिख सके...
और वो खुद पूरे मन से जुटा है...
अपना काम करने में...
उसकी ईगो को अच्छा लगता है...
वो एक सनकी की तरह सब इग्नोर कर देता है...
(वैसे ये चमचा बनना भी कोई आसान काम नहीं है)
वो खुद को गरीब महसूस करता है...
जब वो हाई-फाई अंग्रेजी बोलती लड़कियों को देखता है...
आईने के सामने ...
वो भी कई बार हाथ हिला-हिलाकर ...
वैसे ही बोलने की कोशिश करता है...
लेकिन आईना कमबख्त झूठ भी तो नहीं बोलता...
उसकी गरीबी और बढ़ जाती है...
जब वो उन लड़कियों के साथ...
अब कुछ लड़कों को भी देखने लगता है...
जो वैसे ही हाथ हिला-हिलाकर बात कर रहे हैं...
एक गरीब को गुस्सा भी बहुत आता है...
लेकिन वो गुस्से को पीना भी सीख जाता है...
(सब जवानी के चोंचले हैं... )
वो खुद को बहुत गरीब महसूस करता है...
जब वो देर रात काम से घर लौटता है...
अगले दिन का डे-प्लान...
उसके दिमाग में दौड़ रहा होता है...
औऱ वो देखता है...
एक हैप्पी डिनर के बाद...
शहर की सड़कों पर निकले...
लोगों को...
कई परिवार के साथ... हैं...
जिनके बच्चे गुब्बारे खरीदने की जिद कर रहे होते हैं...
एक पल को वो भी बच्चा बन...
गुब्बारे खरीदने को मचल जाता है...
फिर वो आईसकीम शेयर करते कुछ जोड़ों को देखता है...
उसे लगता है वो बचपन से सीधा बुढ़ापे में प्रमोट हो गया है...
लगता है जैसे ज़िंदगी जी नहीं है... बस किसी तरह बिता दी है...
लेकिन उनकी बातें वो रस ले-लेकर सुनता है...
कुछेक यादों को वो...
फिर अपने तरीके से मैन्युपुलेट कर...
खुश होने का ढोंग रचता है...
औऱ जैसे ही हंसने की कोशिश करता है...
पेट में आंतें कुलबुलाने लगती है...
और उसे याद आता है कि काम की आपाधापी में...
आज वो फिर से लंच कर ही नहीं पाया...
वो अपनी गरीबी भूल जाता है...
अब उसे भूख सताने लगती है...

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

पन्नों पर नमी है

कवर पर चढ़ी जिल्द...

पपड़ाई है ...

कमरे की सफेदी की तरह ...

जो उतरना चाहती है...

पर उतरी नहीं है...

हाशिये पर कई...

कटे-फटे से अक्षर हैं...

पर नाम कोई नहीं है...

सबसे पीछे वाले पन्ने पर ...

आड़ी-तिरछी रेखाएं...

खिंचीं हैं...

अलग-अलग रेडियस वाले...

अधबने कई वृत हैं...

जो किसी स्वर -संधि के समान...

अटपटे रिश्तों से गुंथे हैं...

कोई खाका सा लगता है ... अबूझ सा

बस कोई डेफिनिट शेप ...

कोई आकृति नहीं है...

आधी पढ़ी किताबों ...

और

मुड़े-तुड़े पन्नों के बीच से...

कई बुकमार्क्स झांक रहे हैं...

अचरज का भाव...

सबका फेवरेट हैं...

यूं सहेजा जाना उनकी समझ में भी...

अभी तक आया ही नहीं है...

कई पैराग्राफ...

हतप्रभ हैं...

हाई-लाइट किए जाने से...

औऱ कई अंडरलाइन की गई ...

पंक्तियां भी...

अपना खुद का औचित्य...

सालों पहले भुला चुकी हैं...

समय के साथ..

अल्प विराम...

अब स्थायी हो चले हैं...

पूर्ण विराम अब तक रुके पड़े हैं...

परिचय का कॉलम खाली है...

प्रस्तावना अधलिखी है...

जिंदगी की शेल्फ पर...

बेतरतीब रखी हैं कविताएं...

कई हार्ड-बाउंड किस्से हैं...

और पेपरबैक वर्जन में ...

कई कहानियां सिमटी पड़ी हैं...

धूल की तहों में...

धुंधले हैं चेहरे...

पर मन के भीतर ...

जर्द पन्नों पर ...

अब भी बाकी नमी है...

बुधवार, 14 अप्रैल 2010

कुछ बात यूं हई


तुझे जब-जब लिखना चाहा...

कुछ बात यूं हुई...

हम उलझे रहे शब्दों में...

औऱ ...बात... चली गई ...

तुझे जब-जब पढ़ना चाहा...

कुछ बात यूं हुई...

हम पढ़ ना पाए सीरत...

सूरत बदल गई...

तुझे जब-जब कहना चाहा...

कुछ बात यूं हुई...

तेरी बात कहते-सुनते...

हर राह गुजर गई...

जब-जब तुझे सुनना चाहा

कुछ बात यूं हुई...

मैं सुन ना पाया आहट...

दबे पांव तू चली गई...

तुझे जब-जब मिलना चाहा...

कुछ बात यूं हुई...

हम भूल बैठे तारीख...

औऱ मुलाक़ात हुई नहीं...