शुक्रवार, 3 जुलाई 2015

उजाले की ओर . . .



ये तस्वीर आपसे कुछ कहना चाहती है... 
ये बेफिक्री... कुछ कहना चाहती हैं...
कुछ कहना चाहते हैं ये चेहरे...
ये चेहरे... अनजाने से...
कुछ साफ कुछ धुंधले ...
लेकिन मुस्कुराहट... वही जानी-पहचानी... 
आशाओं वाली... उम्मीदों वाली... 
बिल्कुल वही...
उस ऐड फिल्म की तरह... 
उम्मीदों वाली धूप... 
sunshine वाली आशा... 

कैमरे में मैने इस पल को तो कैद कर लिया लेकिन और भी बहुत कुछ था इस पल के साथ जुड़ा हुआ जो मैं उस वक्त देख रहा था, महसूस कर रहा था। मैं उस पल को वास्तविकता में जी रहा था जो एक कैमरा आप तक पहुंचा तो सकता है लेकिन उसे एक इंसान की तरफ भावनात्मक तौर पर महसूस और बयां करने में अभी शायद समर्थ नहीं है।
कुछ वक्त पहले किसी काम के सिलसिले में गांव जाना हुआ। ये तभी था, जब गांव के स्कूल से लौटते इन बच्चों से मुलाकात हुई।
और यही कुछ ऐसे पल होते हैं जो आपको जाने-अनजाने बहुत कुछ दे जाते हैं।
सालों पहले एक शब्द से साबका हुआ,  जिजीविषा... शाब्दिक और संदर्भित अर्थ तो तत्काल उपयोगानुसार ग्रहण कर लिया गया लेकिन वास्तविक अर्थ... वास्तविकता का दर्शन... इसी जीवन दर्शन से हुआ। आखिर क्या होती है ये जिजीविषा। तमाम विषमताओं और तमाम अभावों के बीच ज़िंदगी कैसे पनपती है... हमारे शहरों से ज़िंदगी के कुछ सबक शायद अछूते रह जाते हैं।


स्कूल से लौटते इन बच्चों के चेहरे थकान से उतरे हुए नहीं बल्कि खुशी से दमक रहे थे, इन बच्चों के होठों पर कोई शिकायत नहीं थी बल्कि वो स्कूल में सीखा कोई गीत गुनगुना रहे थे और सिर्फ गुनगुना नहीं रहे थे बल्कि बुलंद आवाज़ में मास्टर जी द्वारा सिखाए गए पाठ को याद करते जा रहे थे।  इन बच्चों को घर जाकर ट्यूशन नहीं जाना था, ना किसी डांस क्लास में जाना था, ना कहीं म्यूज़िक क्लास में जाना था। घर पर टीवी तो शायद होगा ही लेकिन उस पर तमाम चैनल होंगे या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं। शहर की सभी सुविधाओं की तुलना नहीं करूंगा, वो शायद तर्कसंगत नहीं होगा लेकिन इन बच्चों को घर जाकर आराम करने को भी मिलेगा ये भी तय नहीं था, और ये शायद इस तरफ ध्यान भी नहीं देते होंगे। लेकिन ये बच्चे खुश थे, स्कूल जाकर ... इनकी बातों में स्कूल ना जाने के बहाने नहीं थे... आज की बातें थी, कल की मुलाक़ातें थीं, सपने थे, बालसुलभ जिज्ञासा थी।
कुछ दिन पहले एबीपी न्यूज़ चैनल पर कार्यक्रम रामराज्य देखा। कार्यक्रम के बारे में बहुत चर्चा सुनी थी, इसलिए देखने की जिज्ञासा भी थी और उस दिन का वो कार्यक्रम देखना व्यर्थ नहीं था। रामराज्य के उस एपिसोड में फिनलैंड की शिक्षा प्रणाली की बात की गई थी। कुछ ऐसा नहीं था जो इस धरती पर संभव ना हो, कुछ ऐसा नहीं था जो हमारे संसाधनों से परे हो। कुछ ऐसा नहीं था जो हमारे इतिहास से बढ़कर समृद्ध, सक्षम, समर्थ, विविधतापूर्ण और गौरवशाली हो।
क्या ऐसा हमारे अपने देश, हमारे अपने शहरों और हमारे अपने गांवों में नहीं हो सकता है। हालांकि ये सोच... बहुत पहले से हमारी व्यवस्था का हिस्सा है, लेकिन एक आदर्श के तौर पर इस सोच का साकार होना अभी बाकी है . . .

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