रविवार, 5 जून 2016

विदेशी एप्पल बनाम स्वदेशी चप्पल




'एप्पल की चप्पल' ...
एक तरफ iPhone 8 को लेकर खबरों का बाज़ार गर्म है तो वहीं कुछ प्रतिभाशाली लोगों ने उसे खरीदने वालों के लिए फुटवियर बनाने की शुरुआत कर दी है। मतलब साफ है, ऊपर से नीचे तक ...अंदर से बाहर तक ...हर जगह एप्पल ही एप्पल... और इसके लिए एकदम ज़मीनी स्तर पर काम शुरु हो चुका है।
और हर स्तर पर ढेरों सरकारी एवं गैर-सरकारी योजनाएं हैं, प्रोत्साहन हैं ... चितेरे तैयार हैं समूची व्यवस्था को अपना बना लेने के लिए। और बनने-बनाने के इस खेल की शुरुआत की गई प्रोद्यौगिकी के इस शाहकार के नए अवतार के साथ। 
दरअसल कई लोगों ने पहले-पहल आई-फोन से ही इस महत्वाकांक्षी परियोजना का शुभारंभ किया था लेकिन हमारा तंत्र ऐसे उद्यमियों के मन की बात नहीं जान सका, इसके विपरीत कि उनके हुनर को तराशा जाए, उसे बढ़ावा दिया जाए... उनकी दुकानों को निशाना बनाया गया, उनके गोदामों पर छापे मारे गए, उन्हें गिरफ्तार कर सरेआम ज़लील किया गया। उनके गोरखधंधे की गाढ़ी काली कमाई को पूरी दुनिया के सामने बेपर्दा कर दिया गया। उन लोगों का गुनाह सिर्फ इतना था कि वो सस्ते दामों पर लोगों को एप्पल के महंगे फोन मुहैया करा रहे थे। हालांकि लोगों की हैसियत को टटोलते हुए वो कई बार एप्पल के ही मार्केट रेट पर फोन मुहैया कराते थे, जिससे वो हीन-भावना के कतई शिकार न हों। एप्पल के हाथ यदि इनकी तकनीक मिल गई होती तो शायद भारत में आई-फोन का आगमन अंग्रेज़ों के साथ ही हो गया होता और हमने उनके तमाम एप्पल खरीदकर उन्हें हाथों-हाथ लौटती डाक और डोलते जहाज़ से वापिस रवाना कर दिया होता। 
लेकिन इतिहास को शायद इसी रूप में हमारे सामने आना था। इन जुझारू कुटीर उद्यमियों को बिना किसी नोटिस के कई दिनों की निगरानी के बाद धर-दबोचा गया और देसी जुगाड़ तकनीक को दरकिनार करते हुए हमारे बाज़ार ने एक बार फिर विदेशी ताकतों के आगे घुटने टेक दिए।
लिहाज़ा तकनीकी रूप से अत्यंत सक्षम और धंधे के हिसाब से बेहद घाघ इन समाजसेवियों के हश्र को देखते हुए बाकी अन्य चिंतक विचारक तुरंत दूसरे अन्य विकल्प तलाशते हुए फिर से समाजसेवा में तल्लीन हो गए। सभी ने सफलता का बेहद साधारण लेकिन परिश्रम वाला पथ अपनाते हुए, एक दूसरे नाम के साथ खुद को रजिस्टर कर, एक दूसरी पहचान को अपनाया और वो फिर से मैदान में कूद पड़े... एक नए नाम...एक नई पहचान... एक नए काम के साथ। ये तरीका ज़िंदगी में हर जगह काम करता है, बिल्कुल शाहरुख खान की फिल्मों की तरह। आप बस अपना सपना देखिए और सारी कायनात (सिस्टम) आपकी मदद को आमादा हो जाती है, लेकिन एक अदद कीमत के साथ। सपने देखने की भी एक कीमत होती है जनाब और उनके पूरे होने की कीमत अलग से अदा करनी पड़ती है। 
कई सालों पहले फोन का ये सपना हमारे देश में आना शुरु हुआ... फिर धीरे-धीरे विज्ञापन बाज़ार ने हर सपना आपके फोन से ही जोड़ दिया...
ज़र...जोरू औऱ ज़मीन से शुरु हुए सपने जन्नत तक जा पहुंचे ... सब कुछ बस एक फोन की बदौलत। ज़िंदगी आगे बढ़ने का नाम है लिहाज़ा जब फोन के सपने राशन कार्ड में लिख दिए गए तो देखते ही देखते एक पूरी की पूरी जेनरेशन ने आई-फोन के सपने पर ही अपनी ज़िंदगी जी ली।
वस्तुत: आई-फोन एक फोन से भी कहीं आगे बढ़कर एक जीवनशैली बन चुका है। ये आपकी सोच पर इस कदर हावी हो चुका है कि आप फोन भले ही किसी भी कंपनी का रखें लेकिन रिंग-टोन उसमें एप्पल की ही सुनाई देती है। 
लेकिन यहां मकसद एप्पल नहीं ... कुछ रणबांकुरों की सोच का वो अनूठा शाहकार है जो यकीनन उन्हें एक दिन स्टीव जॉब्स के समकक्ष लाकर खड़ा कर देगा। कुछ बाएं हाथ से काम करने वाले मित्रों का मानना है कि इस अत्यंत मानवापयोगी आविष्कार की उत्पत्ति पड़ोसी मित्र देश चीन की उदारवादी नीतियों की ही देन है। दरअसल वहां का खुला बाज़ार, प्रदूषण रहित ऑड-ईवन नीतियां औऱ सौम्यवादी प्रोत्साहन इस तरह के उत्पादन के लिए बिल्कुल मुफीद है। चप्पल से लेकर चिकनकारी तक... सब कुछ एप्पल मार्का एकदम संभव है, जहां चैंपियन एथलीट तक फैक्ट्री में तैयार किए जाते हैं वहां छोटे-मोटे उत्पादों की क्या बिसात। 
सिर्फ एक request है आप सभी से... जहां से भी इन हुनरमंद उद्यमियों की जानकारी मिले, इनसे इनकी प्रेरणा के बारे में जरूर पूछें कि आखिर उन्हें ये क्या सूझा। तब तक इन चप्पलों को घिसें, घिसते रहें ...एक अदद i-फोन एक दिन जरूर प्रकट होगा...

(हर सपना सच होगा) सनद रहे ...


हर हाथ में एप्पल
हर पांव में चप्पल...






( उपर्युक्त पोस्ट का किसी भी फोन या फोन कंपनी से कोई लेना-देना नहीं है। कृपया इसे संदर्भित साक्ष्यों... तथ्यात्मक एवं तार्किकता की कसौटी पर ना परखा जाए )

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