गुरुवार, 21 जुलाई 2011

क्या लिखते हो ...

सवाल - क्या लिखते हो ...
जवाब - कविताएं ...
बस फिर क्या ...
उधऱ एक दबी सी हंसी...
और इधर
बेशर्म हो चली बेबसी ...
वो हंसते चले गए...
और हम धंसते चले गए...
अपने ही आप में...
ना सवाल अपने आप उपजा था...
और ना ही जवाब...
मौका एक बुक लॉन्च का था...
जहां ये चीजें लाज़मी हो जाती हैं...
भले ही तर्कसंगत ना हो ...
खैर ... सवाल को हमने ...
तीन-चार गिलासों के हवाले किया....
औऱ कुछ ऐसा ही सुलूक मेरे सामने...
मेरे जवाब के साथ हो रहा था...
सवाल औऱ जवाब के बीच शीतयुद्ध...
अब खत्म होता दिख रहा था...
वोदका और व्हिस्की की दोस्ती रंग ला रही थी...
कहानी अभी बाकी है ....
लेकिन सारे सवाल अब तक जवाब बन चले थे....
और उन्हें बहुत मज़ा आ रहा था...
उनका मूड बन चुका था....
उन्हे शाम को हुई बैंड की परफॉर्मेंस से ज़्यादा...
उसकी लीड सिंगर याद थी....
लेखक/लेखिका के आख्यान से ज़्यादा...
उसका वस्त्र विन्यास ज्यादा याद था...
सवाल अब उस भीड़ से थे...
जो वहां जुटी थी...
सवाल उन देसी फिरंगों औऱ बेहूदों से थे...
जो असली वालों को टटोलने में लगे थे...
सवाल अपने आप से था...
कि जनाब आप खुद वहां क्या कर रहे थे...
बस्सससससससस....
बहुत हो गया....
इत्ती भी नहीं होनी चाहिए कि आदमी खुद से सवाल-जवाब करने लगे...
क्या लिखते हो' पर इतनी नौटंकी...
क्यों लिखते हो' पर तो पता नहीं क्या-क्या कर देते...
जवाब सोच कर रखते हैं ...
अगली मुलाकात के लिए...
तो साहब...
फिर मिलते हैं....
लड़खड़ाती ज़ुबान...
और डगमगाते कदमों के साथ....

4 टिप्‍पणियां:

  1. एक दिन पन्नो पे लिखी अपनी तहरीर (writing) से पूछ लिया मैने..
    क्यूँ नही लिख पाता आजकल तुम्हे मैं
    कुछ उंघते हुए बड़े अनमने अंदाज़ में बोली
    तुमने तो मेरा साथ बहुत पहले छोड़ दिया था
    याद है.. कभी वो नलके की टॅप टॅप और घड़ी की टिक टिक मैं मुझे ढुंड लिया करते थे
    कभी अपनी तन्हाई की सिमटी हुई चादर से मेरी तरफ झाँक लिया करते थे
    कभी किसी गुज़री हुई याद में मुझे पिरो कर बाँट लिया करते थे
    तुम्हे कभी मुझे द्धूँढना नही पड़ता था
    मैं तो यू ही तुम्हारे कपड़ो की तरह तुमसे लिपटी रहती थी

    याद है तुम्हे कभी तुम्हे नींद नही आती थी
    तो मेरी आगोश में सर झुका कर, मुझे से अपने दिल की बात कर लिया करते थे
    और जब थक जाते थे , तो मैं तुम्हारा अगल दिन इंतीज़ार करती थी

    और कभी नाराज़ से होकर मुझे पे हे बिगड़ जाते थे
    जैसे के मैं जान बुझ के तूमे सता रही हू

    कितना वक़्त हो गया कुछ याद है तुम्हे
    छुआ नही तुमने मुझे
    कभी यूही टटोला भी नही
    के मैं वाहा हू भी के नही
    बस किसी सामान की तरह बंद करके रख दिया है....

    नाराज़ थी वो मुझे बहुत नाराज़
    और मेरे पास उसको मनाने का कोई बहाना भी नही था
    क्या कहता के दिल के ज़ख़्म अब इतने हो चुके है के तूमे ब्सान भी नही कर सकता
    या इस अकेलेपन में इतना खो चुका हू मैं
    की तुम्हे क्या खुद को भी नही पहचान सकता
    कैसे बतौउ तुम्हे
    के तुम्हे चाहता बहुत हू..
    पर शायद लफ्ज़ नही ढूंड पाता मैं
    कोशिश बहुत करता हू
    पर शायद अब लिख नही पाता मैं
    हा शायद लिख नही पाता मैं....





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  2. इतना लिख दिया शगुन महाराज ... और कह रहे हो कि लिख नहीं पाता हूं ... लिखा करो ...

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