सोमवार, 19 अगस्त 2013

........................ रिपोर्ट का इंतज़ार है ........................


**************************** DISCLAIMER ****************************

एक छोटी सी कहानी है जो हम बचपन से सुनते हुए आए हैं लेकिन कमबख्त पीछा छोड़ने का नाम ही नहीं लेती है ...
हर बार एक नए कलेवर और एक नए फ्लेवर के साथ सामने आ जाती है इतराती हुई ...
चाहे मामला कितना ही संजीदा क्यों ना हो  ।
इस कहानी की मासूमियत और मार्मिकता बरकरार रहती है , पात्रों,सुपात्रों या कुपात्रों से नहीं इसकी ये विशेषताएं  तथाकथित संलिग्न भावों से उपजी हैं ।
बरसों पुरानी कहानी का ये रेट्रो- रीमिक्स एक खरपतवारी सोच का नतीजा है और लेखक के मानसिक दीवालिएपन का द्योतक है लिहाजा इसे ' जैसा है वैसा है ' की श्रेणी में रखा जाए ।
(अरे जैसा नीलामियों में होता है मानसिक - आर्थिक कंगलों ) ...
और इस कपोल कल्पना को अन्यथा तो कतई ना लिया जाए और इसका किसी भी धर्म-संप्रदाय या फिर किसी व्यवसाय से दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं है ।

-------------------------------------------------------------------

ये कहानी एक शहरीकृत जंगल की है , जिसकी पृष्ठभूमि में बहुत से सवाल, घटनाएं, किरदार और इन किरदारों के कहे-अनकहे किस्से जुड़े हुए हैं लेकिन हम अपना वक्त बर्बाद ना करते हुए सीधा अपने रंगमंच की तरफ लौटते हैं जहां बहुत कुछ घटित हो रहा था । 
जंगल में अमूमन जंगलराज होता है... ये सर्वविदित है , इसके लिए हमें किसी प्रकार के अनुसंधान की जरुरत नहीं है  , लिहाजा फिर भी पाठकों की उत्सुकता को बनाए रखने के लिए और लेखन की तार्किकता बरकरार रखने के लिए हमने खुद जंगल में जाकर कई प्रकार के प्रयोग किए तो पाया कि तमाम दावों के बावजूद , औद्योगिकीकरण के इस दौर में भी हम इस जंगल को किसी तरह बचाए रखने में सफल रहे , हालांकि अब जाकर जंगल में तमाम तरह के बदलाव दस्तक देने लगे थे ।
जंगल में अब लोकतंत्र की स्थापना हो चुकी थी... पाठक यहां ध्यान दे कि जंगल यहां एकवचन नहीं बल्कि बहुवचन में इस्तेमाल किया जा रहा है । बार-बार आने वाली प्राकृतिक आपदाओं के चलते इंसान प्रकृति के इतना नजदीक जा पहुंचा था कि जेनेवा कन्वेशन के एक स्पेशल सेशन में पूरे ब्रह्मांड को जंगल घोषित किया जा चुका था और जंगल को अपने आप में ब्रह्मांड की संज्ञा दे दी गई थी। और इस जंगल  में जीने का तंत्र अब लोकतंत्र था, शासन का तंत्र अब लोकतंत्र था। यानि कोई अपना शासन खुलेआम किसी पर नहीं थोप सकता था, बिना लाठी के भी अब लोग भैंस लेकर घूम सकते थे। लेकिन इन सब परिवर्तनों से अगर कुछ अछूता रहा था तो वो थी जंगल के राजा शेर की हुकूमत ।
शेर बहादुर की शानो-शौकत पहले जैसी ही बरकरार थी । वही रौब-वही रुतबा ... जीने का वही अंदाज़ । अब आप वजह भी जानना चाहेंगे , और आपको जानकर ये कतई आश्चर्य नहीं होगा कि लोकतंत्र में एक तंत्र के मुताबिक हुए चुनावों में जनाब शेर अब निर्विरोध जंगल के मुखिया चुन लिए गए थे।
हालांकि चुनाव पूरे नियम कायदों के अनुसार हुए थे, जंगल में गठित चुनाव आयोग की सरपरस्ती में सैकड़ों गौरैयों का झुंड चुनाव पर्यवेक्षक बना इठला रहा था । पुराने जमाने के एक रीछ ने जरुर बालहठ में महाराजा शेर के सामने चुनाव मैदान में अंत तक डटे रहने का फैसला किया था लेकिन सठियाने की उम्र में वो वो अपनी जमानत जब्त करा बैठे थे । बाकी सभी कैंडिडेट्स को शुरु में ही मैनेज कर लिया गया था ।
शेर के चमचे सियार और गीदड़ पहले से रही आस-पास के मानवीकृत गांवों से चुनावों को मैनेज करने की सारी डीटेल जुटा चुके थे। जमकर बूथ-कैप्चरिंग हुई... चुनाव जीतने के तमाम हथकंडे अपनाए गए ... हर संभव वादे जंगल की जनता के साथ किए गए । और इसका नतीजा ये निकला कि महाराज शेर लोकतांत्रिक तरीके से भी जंगल के राजा बन गए । सर शेर बहादुर की गिनती अच्छे नेताओं में की जाती थी, एक कुशल शासक बनने के तमाम गुण उनमें सकुशल विद्यमान थे लेकिन ना जाने क्यों चुनाव होते ही सत्ता संभालने के बाद उन्होंने इस प्रकार के सभी दुर्व्यसनों से किनारा कर लिया ।
अब हर तरह के सौदों ... डील्स ... टेंडर्स के रास्ते उनके दीवान-ए-खास वाले ड्राइंगरुम से निकलते थे तो उनके दुश्मनों के लिए रास्ते... उनके किचन से । अरे भाई शेर आखिर शेर ही होता है ना और जंगल का राजा शेर भूखा मर जाएगा लेकिन घास नहीं खाएगा। 
वैसे किसी भी सत्ता प्रणाली की ही तरह पावर का असली मजा महाराज शेर बहादुर के प्यादे यानि कि ... गीदड़, सियार, लोमड़ी वगैरह वगैरह किस्म के जीव कर रहे थे। कुछ ने तमाम तरह की संस्थाएं दानस्वरुप हथिया ली थीं तो कुछ अपने बिजनेस को नए आयाम देने में लग गए थे। हमारी कहानी का बिजनेस इसी से जुड़ा हुआ है...जैसा कि पहले भी स्पष्ट किया जा चुका है कि वक्त की कमी से आजकल सभी जूझ रहे हैं फिर चाहे वो लेखक हो ... पाठक हो या फिर खुद किसी किस्से-कहानी के पात्र या फिर उनके बुझते परिवेश औऱ संवाद ... इसलिए हम निहायत ही कम शब्दों में आपकी विचारशीलता को वापस आपके बचपन में लिए चलते हैं जहां किस्से-कहानियों के लिए बहुत सारी जगह थी और बहुत सारा वक्त भी।
हुआ यूं कि जब जंगल में लोकतंत्र की स्थापना हुई तो सारे सेटअप का गहन अध्ययन किया गया और उसे ज्यों का त्यों अपनी सहजता और स्वभाव के अनुरुप अपना लिया गया । अब सबके लिए समान अवसर थे, सहूलियत के साथ भी और सहूलियत के बाद भी।  लिहाजा कहीं बिल्ली बाबू बनी तो बकरी अफसर। कुत्ता कहीं सिक्योरिटी गार्ड था तो तोता डॉक्टर बना । हाथी को जंगल के म्यूनिसिपल डिपार्टमेंट में बुलडोज़र की नौकरी मिल गई थी । तो ऊंट फायर डिपार्टमेंट के चीफ थे, क्यों... पता नहीं । खरगोश डाक विभाग में लगा दिए गए थे। जंगल की देखभाल का जिम्मा चील-कौवों के हवाले था तो ट्रैफिक विभाग हिरण ने संभाला हुआ था। चील, बाज़ और कौवे क्रमश: पुलिस, इंटेलिजेंस और होमगार्ड में शामिल कर लिए गए थे।

जंगल में समयानुरुप सुशासन की बयार बह रही थी  और जंगल  की जनता ने भी जीने के इसी खांचे में खुद को ढाल लिया था ।

सब कुछ एक दम शांति से चल रहा था जैसा कि व्यवस्था के अनुरुप चलना चाहिए लेकिन तभी अचानक से जंगल की शांति को जैसे किसी की नज़र लग गई । जनाब शेर बहादुर के एक अत्यंत खास चमचे सियार के बिजनेस तक कानून के लंबे हाथ जा पहुंचे और बहादुर अफसर बकरी ने ताबड़तोड़ कार्रवाई करते हुए जंगल को सुधारने का बीड़ा उठा लिया ।
बकरी बहादुर जरुर थी लेकिन उसमें व्यवहारिकता का घोर अभाव था, बकरी के कर्तव्य निर्वाहन की हर संभव मंच पर मीमांसा की गई और उसे प्रशासनिक तौर पर अक्षम घोषित कर दिया गया । हालांकि जंगल का एक तबका बकरी के साथ भी था लेकिन बकरी को सबक सिखाना अब जरुरी हो चला था ताकि भविष्य में कोई इस तरह से लोकतांत्रिक व्यवस्था का गलत इस्तेमाल कर नाहक ही जंगल समाज के सम्मानित लोगों को परेशान ना कर सके ।

*** बकरी पर शाही नदी के पानी को गंदा करने का आरोप लगाया गया , जो बाद में गलत साबित हुआ क्योंकि बकरी को शाही नदी के महल वाले हिस्से तक जाने की अनुमति ही नहीं थी और हमेशा की ही तरह बकरी का घर नदी के निचले हिस्से पर था और महल ऊंचाई पर ।

*** फिर एक और कमेटी बनाई गई जो बकरी पर शाही बगीचे की घास चरने के इल्जाम की जांच कर रही थी... वहां भी पाया गया कि बकरी कंटीली तारों के बीच में से जनता जनार्दन के लिए प्रतिबंधित उस हिस्से तक पहुंच ही नहीं सकती ।

*** बकरी पर ये भी आरोप लगाया गया कि वेजीटेरियन जनता भी बकरी को देखने के बाद अब नॉन-वेज खाना चाहती है, इससे जंगलराज के पुराने दिन लौट सकते हैं ।

***  बकरी पर ये आरोप भी लगाया गया कि उसने सियार के साथ हाथापाई की और उसे बाद में देख लेने की धमकी भी दी । सियार के साथ उस वक्त मौजूद रहे 10 लोगों में से 9 इस मामले में चश्मदीद गवाह हैं जिनमें दो नेत्रहीन भी शामिल है और एक गवाह अफसर बकरी के डर से जान बचाकर कहीं छुपा बैठा है ।

*** आरोप है कि बकरी ने अफसर होने के नाते अपने कट की भी मांग की और मांग के पूरा ना होने पर बदले की भावना से इस पूरी कार्रवाई को अंजाम दिया गया जिससे ... गलत धंधों के सही बंदे ...  बेहद परेशान हुए।

*** बकरी पर आरोप है कि उन्होंने मामले में कार्रवाई करने से पहले आला अधिकारियों से सलाह लेना उचित नहीं समझा और हेडक्वार्टर से आदेश मिलते ही तुरंत कार्रवाई को अंजाम दे डाला।

*** साथ ही बकरी पर ये भी आरोप लगाया गया कि उन्होंने सिस्टम के खिलाफ जाकर पूरे ऑपरेशन को अंजाम दिया। ये सारा काम एक सिस्टम के तहत पहले सुचारु रुप से होता था लेकिन बकरी ने अमानवीय एवं गैरजिम्मेदाराना रवैया अपनाते हुए सिस्टम का पूरा बैलेंस चौपट कर ही डाला जिससे कई बैंक बैलेंस बिगड़ गए।

*** लिहाजा आरोपों का एक मोटा पुलिंदा तैयार कर बकरी मामले पर  दर्जन भर जांच कमेटियां बैठा दी गईं हैं।

इस बीच जंगल की जनता ये जानना चाहती है कि आखिर बकरी की गलती क्या है ।
अगर है तो क्या है ?
मसला व्यक्ति का है या व्यवस्था का ...
अब ये तो साहब आपको जांच रिपोर्ट के आने तक इंतज़ार करना पड़ेगा कि सच क्या है और उस सच के आधार पर क्या फैसला होता है ...
अब सिस्टम में रहेंगे तो सिस्टम को तो मानना पड़ता है ना बॉस ...
इंतज़ार कीजिए ...
हमें भी है ... आप भी कीजिए ...

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें