शनिवार, 29 अगस्त 2009

कुछ खो गया है ...

कमरे में रौशनी ना के बराबर है...
बिखरे पलों को ...
सहेजती...
सन्नाटे की एक चादर....
कई महींनों की गर्द से दबी है...
...दरवाजे की झिर्रियों से...
छुप-छुपकर आते...
रौशनी के साये...
बिस्तर पर सिरहाने की तरफ...
तुम्हे तलाशते हैं...
जहां बैठना तुम्हें बहुत पसंद था...
वहीं उसी जगह...
चिड़िया के दो बच्चे...
टकटकी लगाए अब भी देखते हैं...
रोशनदान पर बने अपने उस घोंसले से...
कुछ देर शोर भी मचाते हैं...
फिर थक जाने पर चुप हो जाते हैं...
मेरी याददाश्त में तो...
तुमने एक ही दिन उनसे बातें की थी...
बस कुछ पल ही प्यार से सहलाया था ...
वो भी उसी को जीवन मान बैठे हैं...
कमरे के इसी कोने में ...
करीने से फैले जालों के बीच...
दिसम्बर का वो महीना ...
अक्सर खिलखिलाता मिल जाता है...
तुम्हारी अधखुली आंखों से झांकता हुआ...
साथ ही...
अब भी तुमको समेटे हैं...
...जनवरी...फरवरी औऱ मार्च...
जैसे कोई गीत सा हो...
हर दिन की जैसे नई धुन...
अनेकों बार पढ़ा हुआ...
अनेकों बार आंखों के सामने से गुजरा...
अजनबी सा लगा...
जैसे हर शब्द भी नया सा था...
हर बार एक नए मतलब के साथ...
एक नया अर्थ...
एक नया आयाम तलाशता...
एक जीव...
जिसकी शक्ल बहुत हद तक...
उस कमरे में अब....
बेजान पड़ी एक तस्वीर से मेल खाती है...
वहीं दीवार पर टंगा कैलेंडर...
पंखा तेज़ चलाने पर जाने क्यों...
फड़फड़ाता नहीं है...
गुस्सा होकर गिर जाता है...
औऱ फर्श पर फिर फैल जाते हैं...
अप्रैल...मई ...जून और जुलाई....
और साथ में बहुत से अल्प ....और अर्ध विराम...
टेढ़ी-मेढ़ी लिखावट वाले...
कई मुड़े-तुड़े पन्नों के साथ...
विस्मय से भरी कई शाम...
अलसाई दोपहर की कई किस्तें ...
बरबस ही ...
मुंह ताकती निकल आती हैं...
सबके पास एक प्रश्न है...
हर तारीख हर दिन...हर अंक... अब...
मानो एक प्रश्नवाचक चिन्ह सरीखा आकार है..
प्रश्न बड़ा नहीं है...
उत्तर उससे भी छोटा...लेकिन बेहद जरुरी...
कैलेंडर को वापस लगाते वक्त...
कुछेक प्रश्न...
औऱ नज़र आते हैं...
जिनपर इंतज़ार का लाल घेरा ...
कई तारीखों को एक जैसा बना देता है...
कमरे में अचानक नमी बढ़ जाती है...
लम्हों की बिखरी स्याही ...
फैल जाती है...
बहुत कुछ ...
तुम्हारी आंखों के फैले काजल की ही तरह...
मैं फिर तलाश बंद कर देता हूं...
अपने जीवन के उस एक साल की...
जो शायद ...
मुझसे ही कहीं खो गया है...

5 टिप्‍पणियां:

  1. वहीं दीवार पर टंगा कैलेंडर...
    पंखा तेज़ चलाने पर जाने क्यों...
    फड़फड़ाता नहीं है...
    गुस्सा होकर गिर जाता है...
    औऱ फर्श पर फिर फैल जाते हैं...

    कविता के बिम्ब अद्भुत हैं..बहुत महीन धागों की कसीदाकारी से आपने एक पूरा वातावरण बुना है..खामोश, बेचैन, आत्मलिप्त, व्यथित किन्तु शांत..
    इतनी खूबसूरत रचना के लिये बधाई

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  2. आपकी लेखन शैली का कायल हूँ. बधाई.

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  3. चलो तुम्हारी कविता पढ़कर दिल का बोझ कुछ हल्का हुआ...

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