जिस पर तू इतराता है
तेरे पत्रकार होने के वजूद
पर
पत्रकार नहीं...
बल्कि कोई और ठप्पा लगाता
है,
हर गली में अब पत्रकार
हैं...
तू क्या एक्सक्लूज़िव बना
धक्के खाता है...
बातों से दुनिया नापते हो
रोज़...
और तेरा सैलरी अकाउंट ...
रोज़ तुझे तेरी औकात बताता
है...
मानेगा नहीं तू पर ये सच
है...
आखिर तू भी तो इंसान है...
इसमें झिझकना क्या...
किससे शर्माता है...
तुझे गुमान है ...
तुझे खबरों की समझ है...
अच्छा ...
लिख-लिख...
लिख ले खबर...
फिर तान दे...
तू जान दे या ईमान दे...
तेरी खबर कोई कितनी चलाता
है...
ये खबर तय नहीं करती है...
बल्कि तू जनता को उसे कितना
बेच पाता है...
सच सच बता...
कितनी बार वक्त पर खाना खा
पाता है...
दो निवाले अंदर जाते है...एक फोन
आता है...
और तू उठ जाता है...
ज़माने भर के सरोकार की
बातें मत कर...
क्या जरूरत के वक्त तू अपने
घर भी पहुंच पाता है...
अपने हक़ की आवाज़ उठाने के लिए भी सोचता है...
सोचता है... फिर सोचता
है...
और सोचता रह जाता है...
फिर एक दिन तुम्हारा एक निर्भीक साथी...
किसी खबर की पड़ताल
करते-करते...
ऑन ड्यूटी...
एक ‘ नैचुरल ’ मौत मर जाता है...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें