मैं एक दरख़्त हूं
शांत
स्थिरचित्त
ये मेरी इच्छा नहीं
नियति है
अब यही
स्वभाव,
ये रास्ता
ये कंकड़-पत्थर
ये माटी मेरे साथी
ये मुसाफिर
मेरे हमसफर,
बातें करता हूं
बातें सुनता हूं
वजूद से परे
रिश्ते जोड़ता हूं
लेकिन नियति क्रूर
और
मुसाफिर मजबूर ...
छांव तले
छूट जाते हैं
रिश्ते अक्सर
दरख़्त हूं
संभल जाता हूं
ये इंसान कब समझेंगे
रिश्तों को छोड़ना
इच्छा है
नियति नहीं
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हेमन्त वशिष्ठ
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